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प्रस्तावना
पिछले कालकी रची गयी पट्टावलियों मेंसे धर्मघोषसूरिकृत दु:षमाकाल श्रमणसंघ स्तव एक है। इसकी रचना विक्रमकी तेरहवीं सदी में हुई अनुमानित की जाती है। इसमें उमास्वातिका नाम हरिभद्र और जिनभद्रके बाद आता है पर हरिभद्र ने उमास्वातिके तत्त्वार्थभाष्य पर टीका लिखी है। ये विक्रमकी 8वीं-9वी सदीके विद्वान् हैं, अतएव आचार्योंकी क्रम-परम्पराकी दृष्टि से इस पट्टावलीको विशेष प्रमाण नहीं माना जा सकता। इसमें वि० सं० 720 में वाचक उमास्वातिकी अवस्थिति स्वीकार की गयी है।
धर्मसागर गणिकृत तपागच्छ पट्टावली वि० सं० 1646 में लिखी गयी थी। इसमें जिनभद्र के बाद विबुधप्रभ, जयानन्द और रविप्रभका उल्लेख करने के बाद उमास्वातिका नाम निर्देश किया है और इनका समय वि० सं 720 बतलाया है। यद्यपि इन्होंने आर्यमहागिरिके बहुल और बलिस्सह नामक दो शिष्यों मेंसे बलिस्सहके शिष्य उमास्वातिका उल्लेख कर इन प्रथम उमास्वातिको तत्त्वार्थसूत्रका कर्ता होनेकी सम्भावना की है। किन्तु उनकी यह सम्भावना भ्रमजन्य है । कारण कि नन्दिसूत्र पट्टावलीकी 26वीं गाथामें 'हारियगतं सावं। पद आता है। जिसमें हारितगोत्रीय स्वाति का उल्लेख है। मालूम पड़ता है धर्मसागर गणिने नामकी आंशिक समता देखकर द्वितीयके स्थान में भ्रमसे इन्हें ही तत्त्वार्थसूत्रका कर्ता होनेकी आशंका की है। पं० सुखलालजीने भी इस आशंकाको भ्रममूलक बतलाया है ।।
विनयविजय गणिने अपना लोकप्रकाश वि० सं० 1708 में पूरा किया था। वे उमास्वातिको युगप्रधान आचार्य बतलाते हैं और जिनभद्र तथा पुष्पमित्र के बीच उनकी अवस्थिति स्वीकार करते हैं। इन्होंने अपनी पट्टावलिमें उमास्वातिके समय का निर्देश नहीं किया है।
रविवर्धन गणि (वि० सं० 1739) ने भी पट्टावलीसारोद्धारमें उमास्वातिका उल्लेख किया है। इसमें समयका निर्देश करते हुए वास्तव्यकाल वीर नि० सं० 1190 (वि० सं०720) स्वीकार किया है।
श्वेताम्बर परम्पराकी ये पट्टावलियां हैं जिनमें उमास्वातिका निर्देश किया है । यद्यपि ये पट्टावलियां अपेक्षाकत अर्वाचीन हैं और इनमें कुछ मतभेद हैं तथापि इनको सर्वथा निराधार मानना उचित नहीं है। इनमें निर्दिष्ट वस्तुके आधारसे निम्नलिखित तथ्य फलित होते हैं
1. वाचक उमास्वाति युगप्रधान आचार्य थे। वे वि० सं० 720 के आसपास हुए हैं। बहुत सम्भव है कि इसी कारणसे नन्दिसूत्र पट्टावली और कल्पसूत्र स्थविरावलिमें इनकी परम्पराका किसी भी प्रकारका उल्लेख नहीं किया है।
2. यद्यपि रविवर्धन गणिने जिनभद्र गणिके पूर्व वाचक उमास्वातिका उल्लेख किया है परन्त समयकी दष्टिसे रविवधन गणिने उन्हें जिनभद्रगणिके बादका ही बतलाया है, अत: उक्त सब पट्रावलियों में एकमत होकर स्वीकार किये गये वास्तव्य कालका विचार करते हुए अन्य प्रमाणों के प्रकाश में अधिक सम्भव यही दिखाई देता है कि ये जिनभद्र गणिके बाद ही हुए हैं ।
3. एक प्रशस्ति तत्त्वार्थभाष्यके अन्त में भी उपलब्ध होती है जिसमें वाचक उमास्वातिने स्वयंको तत्त्वार्थाधिगम शास्त्रका रचयिता कहा है। किन्तु इसमें समयादिकका कुछ निर्देश न होनेसे यह प्रशस्ति समय सम्बन्धी पूर्वोक्त तथ्यकी पूरक ही प्रतीत होती है।
यह तो हम अनेक प्रमाणोंके आधारसे पहले ही स्वीकार कर आये हैं कि वाचक उमास्वातिने तत्त्वार्थभाष्यकी रचना की और तत्त्वार्थभाष्यमें स्वीकृत तत्त्वार्थसूत्रके पाठको संस्कारित कर अन्तिम रूप दिया, इसलिए इस रूपमें इन तथ्योंको स्वीकार कर लेने पर भी वाचक उमास्वाति मूल तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता
__ 1. देखो उनका तत्त्वार्थसूत्र प्रस्तावना पृष्ठ 2। 2. ये चारों पट्टावलियां मुनिदर्शनविजय द्वारा सम्पादित श्री पट्टावलीसमुच्चय प्रथम भागमें मुद्रित हुई हैं।
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