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सर्वार्थसिद्धि
भक्ति केवल संस्कृत में है, शेष सब भक्तियाँ संस्कृत और प्राकृत दोनोंमें हैं। मात्र प्राकृत निर्वाणभक्तिकी संस्कृत टीका नहीं है। इसके आगे दूसरे प्रकरणमें और भी अनेक भक्तियाँ संगृहीत हैं और इन पर भी पण्डित प्रभाचन्द्रकी संस्कृत टीका है। इतना अवश्य है कि उनमें जो लघु भक्तियाँ हैं उनपर टोका नहीं है।
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इन भक्तियोंके सम्बन्ध में पण्डित प्रभाचन्द्र प्राकृत सिद्धिभक्ति के अन्त में सूचना करते हैं कि सब संस्कृत भक्तियां पूज्यपाद स्वामीकी बनायी हुई हैं और प्राकृत भक्तियां आचार्य कुन्दकुन्दी बनायी हुई हैं। यथा
'संस्कृताः सर्वा भक्तयः पादपूज्यस्वामिकृताः प्राकृतास्तु कुन्दकुन्दाचार्यकृताः। क्रियाकलाप पृष्ठ 167
ये सब भक्तियाँ एक आचार्यकी कृति हैं या अनेककी यह तो निश्चयपूर्वक कहना कठिन है जिन पण्डित प्रभाचन्द्र इनकी टीका लिखी है वे सम्भवतः पण्डितप्रवर आशाधर के बाद और वि० सं० 1724 के पहले भ कभी हुए हैं, अतएव इस आधारसे इतना ही कहा जा सकता है कि ये वि० सं० 14वीं शताब्दी के पूर्व कभी लिखी गयी हैं। किन्तु इस कथन से यह निश्चय नहीं होता कि पण्डित प्रभाव इनमें किन संस्कृत और प्राकृत भक्त्रियोंको कमसे पादपूज्य स्वामी और कुन्दकुन्द आचार्यकी मानते रहे। उनके स्वामी कौन थे वह भी ज्ञात नहीं होता ।
तसे ये पादपूज्य
पं० पन्नालालजी सोनीने क्रियाकलापकी प्रस्तावना में लिखा है कि 'सिद्धभक्ति, श्रुतिभक्ति, चारित्रभक्ति, योगिभक्ति, आचार्यभक्ति, निर्वाणभक्ति और नन्दीश्वरभक्ति मे सात संस्कृत भक्तियाँ पादपूज्य स्वामी कृत हैं और प्राकृत सिद्धभक्ति, प्राकृत श्रुतभक्ति, प्राकृत नारिषभक्ति, प्राकृत योगभक्ति और प्राकृत आचार्यभक्ति ये पाँच भक्ति कुन्दकुन्दाचार्य प्रणीत हैं। किन्तु उन्होंने ऐसा मानने का जो कारण उपस्थित किया है यह समुचित नहीं कहा जा सकता। पण्डित प्रभाचन्द्रने तो केवल इतना ही कहा है कि सब संस्कृत भक्तियाँ पादपूज्य स्वामी कृत हैं और सब प्राकृत भक्तियाँ कुन्दकुन्द आचार्य कृत हैं और यह भी उन्होंने प्राकृत सिद्धभक्तिकी व्याख्या करते हुए उसके अन्त में कहा है। परन्तु क्रियाकलाप में जिस क्रमसे इन भक्तियोंका संग्रह है उसे देखते हुए प्राकृत सिद्धभक्तिका क्रमांक दूसरा है । सम्भव है कि सोनीजी ने नन्दीश्वरभक्ति पर परिच्छेदकी समाप्ति देखकर यह अनुमान दिया हो जो कुछ भी हो, पण्डित प्रभाचन्द्र के काल में ये भक्तियाँ पादपूज्य स्वामीकृत और कुन्दकुन्दाचार्यकृत मानी जाती थीं इतना स्पष्ट है। विद्वानोंका अनुमान है कि ये पादपूज्य स्वामी आचार्य पूज्यपाद ही होने चाहिए, क्योंकि एक तो इस नामके अन्य कोई आचार्य नहीं हुए हैं। दूसरे इन क्योंका अप्रतिहत प्रवाह और गम्भीर शैली इस बातको सूचित करती है।
इन सब भक्तियों में उनके नामानुसार विषयका विवेचन किया गया है। मुनिजन तथा व्रती गृहस्थ देवसिक आदि प्रतिक्रमण के समय निश्चित क्रमसे इनका प्रयोग करते आ रहे हैं जो आंशिकरूपसे वर्तमान काल में भी चालू है ।
5. जैनेन्द्र व्याकरण-आचार्य पूज्यपादकी अन्यतम मौलिक कृति उनका जैनेन्द्र व्याकरण है। इसका जैनेन्द्र यह नाम क्यों पड़ा ? क्या स्वयं आचार्य पूज्यपाद को यह नाम इष्ट था इसका निर्णय करना तो कठिन है । परन्तु प्राचीन कालसे यह इसी नाम से सम्बोधित होता आ रहा है यह मुग्धबोधके कर्ता पं० बोपदेव के इस उल्लेखसे स्पष्ट है
'इन्द्रश्चन्द्रः काशकृत्स्नापिशलीशाकटायनाः । पाणिग्यमरने जयन्त्यष्टौ च शाब्दिकाः ॥
चातुपाठ
यह पाँच अध्यायों में विभक्त है और सूत्र संख्या लगभग 3000 है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता संज्ञा
1. पण्डित प्रभाचन्द्र अनगारधर्मामृत के दो श्लोक अपनी टीका में उद्धृत किये हैं। देखो क्रियाकलाप प्रस्तावना पृ० 10 2 देखो टिप्पणी 3 पृ० 88 । 3. देखो जैन साहित्य और इतिहास पृ०
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