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सर्वार्थसिद्धि
करके रूपसिद्धि की गयी है वे मत भी कोई नये नहीं हैं। क्योंकि, जैसा कि हम आगे चलकर बतलानेवाले हैं पाणिनि-व्याकरण में भी विकल्पसे उनकी सिद्धि दृष्टिगोचर होती है। इसलिए प्रश्न होता है कि जब कि आचार्य पूज्यपादके सामने पाणिनि व्याकरण था और उस में वे प्रयोग उपलब्ध होते थे ऐसी अवस्थामें उन्होंने अलगसे इन आचार्योंके मतके रूप में इनका उल्लेख क्यों किया। प्रश्न गम्भीर है और सम्भव है कि कालान्तर में इससे कुछ ऐतिहासिक तथ्यों पर प्रकाश पड़े। तत्काल हमारी समझमें इसका यह कारण प्रतीत होता है कि जिस प्रकार पाणिनि ऋषिने अपने व्याकरणमें उनके काल तक रचे गये साहित्य में उपलब्ध होनेवाले मतों का उनके रचयिताके नाम के साथ या 'अन्यतर' आदि पद द्वारा उल्लेख किया है उसी प्रकार आचार्य पूज्यपादने अपने जैनेन्द्र व्याकरणमें उनके काल तक रचे गये जैन साहित्य में उपलब्ध होनेवाले मतोंका उनके रचयिताके नाम के साथ उल्लेख किया है। मतोंका विवरण इस प्रकार है
भतबलि.....आचार्य भूतवलिके मतका प्रतिपादन करनेवाला सूत्र है-'रावभतबलेः'। 3,4,831 भूतबलिके मतानुसार समा शब्दान्त द्विगु समाससे 'ख' प्रत्यय होता है यह इस सूत्रका आशय है। इससे 'समिकः' प्रयोगके स्थान में "वैसमीन:' प्रयोग विकल्पसे सिद्ध किया गया है। इसी प्रकार 'रात्र्यहः संबरसरात'। 3,4,841 और 'वर्षादुपच'। 3, 4,85। ये दो अन्य सूत्र हैं जो भूतबलि आचार्य के वैकल्पिक मतका प्रतिपादन करते हैं। इनमें से प्रथम सूत्र द्वारा 'द्विरात्रीणः, वयहीनः और द्विसंवत्सरीणः' आदि प्रयोग सिद्ध होते हैं तथा दूसरे सूत्र द्वारा 'द्विवर्षः' आदि प्रयोग सिद्ध होते हैं। जैनेन्द्रव्याकरण में ये वैकल्पिक कार्य भूतबलि आचार्यके मतसे माने गये हैं।
इन वैकल्पिक कार्योका निर्देश पाणिनिने भी किया है किन्तु वहाँ किस आचार्यके मतसे ये कार्य होते हैं यह नहीं नतलाया है। इन तीन सूत्रों के स्थान में क्रमसे पाणिनि के 'द्विगोर्वा 5, 1,86,' रात्र्यहः संवत्सरान्स 5, 1,87,' और 'वर्षाल्लुक च 5, 1, 881 ये तीन सूत्र आते हैं।
जीन-आचार्य श्रीदत्तके मतका प्रतिपादन करनेवाला सूत्र है 'गणे श्रीवत्तस्यास्त्रियाम। 1.4, 341' श्रीदत्त आचार्यके मतसे गुणहेतुक पञ्चमी विभक्ति होती है । परन्तु यह कार्य स्त्रीलिंगगें नहीं होता। यह इस सूत्रका भाव है। इसके अनुसार 'ज्ञानेन मुक्तः' के स्थान में श्रीदत्त आचार्य के मतसे 'मानामतः' प्रयोग सिद्ध किया गया है। इसके स्थान में पाणिनि व्याकरण में विभाषा गुणेऽस्त्रियाम् । 2, 3, 25 ।' सूत्र उपलब्ध होता है।
यशोभद्र-आचार्य यशोभद्रके मतका प्रतिपादन करनेवाला सूत्र है 'कृषिमूजां यशोभद्रस्थ । 2, 1,991' कृ, वृष और मृज्' धातुसे यशोभद्र आचार्यके मतानुसार 'क्यप्' प्रत्यय होता है। तदनुसार 'कुत्यम्, वृध्यम् और मुख्यम्' ये वैकल्पिक प्रयोग सिद्ध होते हैं। इसके स्थान में पाणिनि व्याकरण में मजेविभाषा। 3, 1, 113।' तथा 'विभाषा कृवृक्षोः 3,1, 120 ।' ये दो सूत्र उपलब्ध होते हैं ।
प्रभावख-आचार्य प्रभाचन्द्र के मतका प्रतिपादन करनेवाला सूत्र है 'रावः कृति प्रभावस्था 4,3, 1801 रात्रि पद उपपद रहते हुए कृदन्त पर रहते प्रभाचन्द्र के पतसे 'मुम्' का आगम होता है। तदनुसार रात्रिचरः' वैकल्पिक प्रयोग सिद्ध होता है। इसके स्थान में पाणिनि व्याकरणका सत्र हैराकति विभाषा। 6,3,721
समन्तभद्र--आचार्य समन्तभद्रके चार मतोंका प्रतिपादन करनेवाला सूत्र है-चतुष्टयं समस्तभास्य। 5,4,1401 पिछले चार सूत्र आचार्य समन्तभद्र के मतसे कहे गये हैं यह इस सूत्र में बतलाया गया है। वे चार हैं--- भयो हः। 5,4,1361 शछोऽटि। 5,4,1371 हलो यमा यमि खम् । 5,4,1381 तथा 'भरो झरि स्वे। 5,4, 1391' इनके स्थान में क्रमश: पाणिनिके सूत्र हैं-'झयो होऽन्यतरस्याम् । 8, 4, 621 सरोऽटि 184,631 हलो यमा यमि लोपः। 8,4,64। तथा 'झरो झरि सवर्ण। 8.4,651
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