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प्रस्तावना
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देखनेसे स्पष्टत: परिलक्षित होता है। भट्ट अकलंकदेव तत्त्वार्थवार्तिक में सर्वार्थसिद्धिके अधिकतर वाक्योंको वातिकोंका रूप देते हुए दिखाई देते हैं। । तथा जहां उन्हें व्याकरण के नियमोंके उल्लेखकी आवश्यकता प्रतीत हई वहाँ वे प्रायः जनेन्द्र के सूत्रोंका ही उल्लेख करते हैं । इसलिए आचार्य पूज्यपाद भट्ट अकलंकदेवके पहले हए. यह तो सुनिश्चित है। किन्तु सर्वार्थसिद्धि और विशेषावश्यकभाष्यके तुलनात्मक अध्ययनसे यह भी
होता है कि विशेषावश्यकभाष्य लिखते समय जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणके सामने सर्वार्थसिद्धि अवश्य ही उपस्थित होनी चाहिए। तुलनाके लिए देखिएसर्वार्थसिद्धि अ० 1 सू० 15 में धारणा मतिज्ञान का लक्षण इन शब्दोंमें दिया है
'अवेस्तय कालान्तरेऽविस्मरणकारणम्।' विशेषावश्यकभाष्य में इन्हीं शब्दोंको दुहराते हुए कहा गया है
'कालंतरे य जं पुणरणुसरणं धारणा सा उ ॥ गा० 291॥ चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी है यह बतलाते हुए सर्वार्थसिद्धि अ० 1 सू० 19 में कहा गया है
'मनोववप्राप्यकारीति ।' यही बात विशेषावश्यकभाष्य में इन शब्दों में व्यक्त की गयी है
लोयणमपत्तविसयं मणोष्य ॥ गा0 209॥' सर्वार्थसिद्धि अ० 1 सू० 20 में यह शंका की गयी है कि प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके समय दोनों ज्ञानोंकी उत्पत्ति एक साथ होती है, इसलिए श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है यह नहीं कहा जा सकता। यथा
'आह, प्रथमसम्यक्त्वोत्पत्ती युगपज्ज्ञानपरिणामान्मतिपूर्वकत्वं श्रुतस्य नोत्पद्यत इति ।' अब इसके प्रकाश में विशेषावश्यकभाष्यकी इस गाथाको देखिए
'णाणाण्णाणाणि य समकालाई जो महसुयाई।
___ तो न सुयं मइपुग्वं महणाणे वा सुयन्नाणं ॥ गा० 107॥' इस प्रकार यद्यपि इस तुलनासे यह तो ज्ञात होता है कि जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण (वि० सं० 666) के सामने आचार्य पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि उपस्थित रही होगी पर इससे इनके वास्तव्य काल पर विशेष प्रकाश नहीं पड़ता। इसके लिए आगेके प्रमाण देखिए
1. शक संवत् 388 (वि० सं० 523) में लिखे गये मर्करा (कुर्ग) के ताम्रपत्र में गंगवंशीय राजा अविनीतके उल्लेखके साथ कुन्दकुन्दान्वय और देशीय गणके मुनियोंकी परम्परा दी गयी है । दूसरे प्रमाणोंसे यह भी विदित होता है कि राजा अविनीतके पुत्रका नाम दुविनीत था और ये आचार्य पूज्यपादके शिष्य थे। राजा दुविनीतका राज्यकाल वि० सं० 538 के लगभग माना जाता है, अत: इस आधारसे यह कहा जा सकता है कि आचार्य पूज्यपाद 5वीं शताब्दीके उत्तरार्ध और विक्रमकी 6वीं शताब्दीके पूर्वार्धके मध्य कालवर्ती होने चाहिए।
2. वि० सं०990 में बने देवसेनके दर्शनसारके एक उल्लेखसे भी इस तथ्यकी पुष्टि होती है। देवसेनने यह कहा है कि श्री पूज्यपादके एक शिष्य वज्रनन्दी थे, जिन्होंने विक्रम सं0 526 में द्रविड़ संघकी स्थापना की थी। दर्शनसारका उल्लेख इस प्रकार है
सिरिपुज्जपादसीसो दाविडसंघस्स कारगो हो । णामेण वज्जणवी पाहुब्वेदी महासत्तो।।
।. देखो तत्वार्थवातिक 401, सू० 1, वा० 3 आदि । 2. देखो तत्त्वार्थवालिक अ. 4, सू० 21।। 3. रत्नकरण्डकी प्रस्तावना पृ० 142 ।
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