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विषयानुक्रमणिका
[105 दर्शनमोहनीय के तीन भेदोंका कारण व उनकी मूल प्रकृतियों का स्वमुख से अनुभव 311 व्याख्या
300 कुछ कर्मोको छोड़कर उत्तर प्रकृतियोंका चारित्रमोहनीय के सब भेदों की व्याख्या 301 परमुख से भी अनुभव होता है
312 आयुकर्मके चार भेद
303 अपने कर्म के नामानुसार अनुभव होता है 312 आयुव्यपदेशवा कारण व चारों आयुओंकी
कर्मफल के बाद निर्जरा होती है
312 व्याख्या
303 निर्जरा व उसके भेदों की व्याख्या नामकर्मके अवान्तर भेद 303 'च' पद की सार्थकता
312 गति व उसके भेदोंकी व्याख्या
303 विशेषार्थ द्वारा अनुभागबन्धका विशेष विवरण 313 जाति व उसके भेदोंकी व्याख्या 304 प्रदेशबन्ध की व्याख्या
315 शरीर नामकर्म व उसके भेदों की व्याख्या 304 पुण्य प्रकृतियाँ
316 अंगोपांग व उसके भेदों की व्याख्या 304 पुण्य प्रकृतियों के नाम निर्माण व उसके भेदों की व्याख्या 304 पाप प्रकृतियाँ
317 बन्धन की व्याख्या
304 पाप प्रकृतियों के नाम संघातकी व्याख्या
304 संस्थान व उसके छह भेदों की व्याख्या 304
नौवाँ अध्याय संहनन व उसके छह भेदोंकी व्याख्या 304 स्पर्शादिक बीस की व्याख्या 305 संवर का स्वरूप
318 आनुपूर्व्य व उसके चार भेदोंकी व्याख्या 305 संवर के दो भेद व उनके लक्षण
318 पूर्वोक्त भदोंके सिवा अन्य भेदोंकी व्याख्या 306 किस गुणस्थान में किस निमित्त से कितनी गोत्र कर्मके दो भेद 307 प्रकृतियों का संवर होता है
318 उच्च व नीच गोत्रकी व्याख्या
संवर के हेतु
320 अन्तराय कर्मके पाँच भेद
गुप्ति, समिति, धर्म, अनूप्रेक्षा और परीषहदानान्तराय आदिके कार्य
जयका स्वरूप
321
सूत्रमें आए हुए 'सः' पदकी सार्थकता आदि के तीन कर्म व अन्तराय कर्मका उत्कृष्ट
321
संवर और निर्जराके हेतुभूत तपका निर्देश स्थितिबन्ध 309
321
तपका धर्ममें अन्तर्भाव होता है फिर भी इन कर्मों के उत्कृष्ट स्थितिबन्ध का स्वामी 309
उसके अलग से कहने का कारण मोहनीय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध 309
321
तप अभ्युदय स्वर्गादिका कारण होकर भी मोहनीयके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी
309
निर्जराका कारण कैसे है इस शंका का नाम और गोत्रकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध 309
समाधान इन कर्मोके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध का स्वामी 309
321 गुप्तिका स्वरूप
322 आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध
310
निग्रह पद की व्याख्या आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी
322 310
सम्यक् पदकी सार्थकता वेदनीय कर्म का जघन्य स्थितिबन्ध
322 310
गुप्ति संवरका कारण कैसे है इस बातका निर्देश 322 नाम और गोत्रकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध
310 समिति के पाँच भेद
322 शेष कर्मों का जघन्य स्थितिबन्ध 311 समिति संक्रका हेतु कैसे है इस बात का निर्देश 323 अनुभागबन्धकी व्याख्या 311 धर्म के दस भेद
323 विपाकपदकी व्याख्या
311 गुप्ति, समिति और धर्मको संवरका हेत अनुभवके दो भेद 311 कहने का प्रयोजन
323 अनुभवकी दो प्रकार से प्रवृत्ति 311 क्षमादि दस धर्मोका स्वरूप
323
307 308 308
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