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पंचसए छब्बीसे
सर्वार्थसिद्धि
विक्कमरायस्स
मरणपत्तस्स |
महरा जादो दाविडयो
महामोहो ॥
हम पहले नविसंघकी पट्टावलीका उल्लेख कर आये हैं। उसमें देवनन्दी ( पूज्यपाद) का समय विक्रम सं० 258 से 308 तक दिया है और इनके बाद जयनन्दी तथा गुणनन्दीका नामनिर्देश करनेके बाद वज्रनन्दीका नामोल्लेख किया है। साथ ही हम पहले पाण्डवपुराणके रचयिता शुभचन्द्राचार्यकी गुर्वावलीका भी उल्लेख कर आये हैं । इसमें भी नन्दिसंघके सब आचार्यका नन्दिसंघकी पट्टावलीके अनुसार नाम निर्देश किया है। किन्तु इसमें देवनन्दीके बाद गुणनन्दीके नामका उल्लेख करके वचनन्दीका नाम दिया है। यहाँ यद्यपि हम यह मान लें कि इन दोनों में यह मतभेद बहुत अधिक महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि पूर्व परम्पराके अनुसार जिन्हे जिस क्रमसे आचार्योंकी परम्परा मिली उन्होंने उस क्रमसे उनका नाम निर्देश किया है और ऐसी दशा में एकादि नाम छूट जाना या हेरफेर हो जाना स्वाभाविक है। पर सबसे बड़ा प्रश्न आचार्य पूज्यपाद समयका है। मर्क के ताम्रपत्र में जिन आचार्योंका नाम निर्देश है उनमें पूज्यपादका नाम नहीं आता तथा अविनीतके पुत्र दुर्विनीतये विद्यगुरु थे, इसलिए ऐसा मालूम देता है कि नन्दिसंघकी पट्टावलिमें आचार्य पूज्यपादसे पूर्ववर्ती आच योंके नाम छूट गये हैं । मर्कराके ताम्रपत्र में जिन मुनियोंका नामोल्लेख है वे ये हैं - गुणचन्द्र, अभयनन्दि, शीलभद्र, जननन्दि, गुणनन्दि और चन्द्रनन्दि तथा नन्दिसंघकी पट्टावलिमें आचार्य देवनन्दि और वनन्दिके मध्य में जयनन्दि और गुणनन्दि ये दो नाम जाते हैं। गुणनन्दि यह नाम तो मर्कराके ताम्रपत्र में भी है और सम्भव है मिर्क के ताम्रपत्र में जिनका नाम जनानन्दि दिया है वे नन्दिसंघकी पट्टावल जयनन्दि इस नामसे उल्लिखित किये गये हों। यदि यह अनुमान ठीक हो तो इससे दो समस्याएं सुलझ जाती हैं। एक तो इससे इस अनुमानकी पुष्टि हो जाती है कि नन्दिसंपकी पट्टवल में माचार्य पूज्यपाद के पूर्ववर्ती कुछ आचार्योंके नाम छूट गये हैं। दूसरे नन्दिसंघकी पट्टावलिमें आचार्य पूज्यपादके बाद जिन दो आचार्यका नामोल्लेख किया है उन्हें मर्क के ताम्रपत्र में उल्लिखित नामोंके अनुसार आचार्य पूज्यमर्कराके पादके पूर्ववर्ती पन लेनेसे दर्शनसार के उल्लेखानुसार वजनन्दि आचार्य पूज्यपादके अनन्तर उत्तरकालवर्ती ठहर जाते हैं। और इस तरह उनके समयके निर्णय करनेमें जो कठिनाई प्रतीत होती है वह हल हो जाती है। इस प्रकार इन सब तथ्योंको देखते हुए यही कहा जा सकता है कि आचार्य पूज्यपाद विक्रम 5वीं शताब्दी के उत्तरार्धसे लेकर 6वीं शताब्दी के पूर्वार्ध के मध्यकालवर्ती होने चाहिए । श्रीमान् पण्डित नाथूरामजी प्रेमी प्रभूति दूसरे विद्वानोंका भी लगभग यही मत है ।"
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1- देखो जैन साहित्य और इतिहास पृ० 115 आदि प्रेमीजीने आचार्य पूज्यपादके समयका विचार करते समय स्व० डॉ० काशीनाथ बापूजी पाठक मतका विचारकर जो सहमत है।
निकाला है उससे हम
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