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प्रस्तावना
लाधव है। पाणिनीय व्याकरणमें जिन संज्ञाओंके लिए कई अक्षरोंके संकेत कल्पित किये गये हैं उनके लिए इसमें लाघवसे काम लिया गया है। तुलनाके लिए देखिएपाणिनीय व्याकरण
जैनेन्द्र व्याकरण ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत
प्र, दी, प सवर्ण अनुनासिक
गुण वृद्धि
निष्ठा प्रातिपदिक
लोप संज्ञालाघव और रचना विशेष के कारण इसमें सूत्रलाघवके भी दर्शन पद-पद पर होते हैं। यथापाणिनीय व्याकरण
जैनेन्द्र व्याकरण झरो झरि सवर्णे
झरो झरि स्वे हलो यमा यमि लोप:
हलो यमा यमि खम् तुल्यास्यप्रयत्न सवर्णम्
सस्थान क्रियं स्वम् ऊकालोऽज्झस्वदीर्घप्लुतः
आकालोऽच् प्रदीपः इसका प्रथम सूत्र है 'सिद्धिरनेकान्तात।' इसकी व्याख्या करते हुए सोमदेवसूरिने शब्दार्णवचन्द्रिका में जो कुछ कहा है उसका भाव यह है- शब्दोंकी सिद्धि और ज्ञप्ति अनेकान्तका आश्रय लेनेसे होती है, क्योंकि शब्द अस्तित्व-नास्तित्व, नित्यत्व-अनित्यत्व और विशेषण-विशेष्यधर्म को लिये हुए होते हैं। इस सूत्रका अधिकार इस शास्त्रकी परिसमाप्ति तक जानना चाहिए। यदि अनेकान्तका अधिकार अन्ततक न माना जाय तो कौन आदि है और कौन अन्त है, किस अपेक्षासे साधर्म्य है और किस अपेक्षासे वैधर्म्य है यह सब कुछ न बने।
वैयाकरणोंका स्फोट वाद प्रसिद्ध है। वे शब्द को नित्य मानकर तालु आदिके संयोगसे मात्र उसका स्फोट मानते हैं, उसकी उत्पत्ति नहीं, जब कि स्थिति ऐसी नहीं है, क्योंकि अकार आदि वर्ण और घट, पट आदि शब्द कुछ आकाश में भरे हुए नहीं हैं और न वे आकाशके गुण ही हैं। वे तो तालु आदिके निमित्तसे शब्द वर्गणाओंके विविध संयोगरूप उत्पन्न होते हैं और कालान्तरमें विघटित हो जाते हैं। अतः वैयाकरणों के मन्तव्यानुसार वे सर्वथा नित्य नहीं माने जा सकते। पुद्गल द्रव्यकी अपेक्षा जहाँ वे नित्य सिद्ध होते हैं वहाँ वे पर्यायकी अपेक्षा अनित्य भी सिद्ध होते हैं । स्पष्ट है कि इस भावको व्यक्त करने के लिए आचार्य पूज्यपादने 'सिद्धिरनेकान्तात्' यह प्रथम सूत्र लिखा है। व्याकरणमें शब्दोंकी जिस प्रकार सिद्धि की गयी है या जो संज्ञाएँ व प्रत्यय आदि कल्पित किये गये हैं वे सर्वथा वैसे ही नहीं हैं किन्तु भाषाकी स्थितिको स्पष्ट करने के लिए माना गया वह एक प्रकार है और यही कारण है कि अनेक वैयाकरणोंने रूपसिद्धिके लिए अलग-अलग संज्ञाएँ व प्रक्रिया स्वीकार की है। ऐसी स्थितिके होते हुए भी अनेक विद्वानों में अमुक प्रत्यय और अमुक प्रकारसे रूपसिद्धिके प्रति आग्रह देखा जाता है। सम्भव है इस ऐकान्तिक आग्रहका निषेध करनेके लिए भी आचार्य पूज्यपादने 'सिबिरनेकान्तात्' सूत्रकी रचना की हो।
आचार्य पूज्यपादने अपने जैनेन्द्र व्याकरणमें भूतबलि, श्रीदत्त, यशोभद्र, प्रभाचन्द्र, समन्तभद्र और सिद्धसेन इन छह आचार्योंके मतोंका उल्लेख किया है। अभी तककी जानकारीके आधार पर यह तो नि:संकोच कहा जा सकता है कि इनका कोई व्याकरण नहीं है। साथ ही इन आचार्यों के जिन वैकल्पित मतोंका उल्लेख
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