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सर्वार्थसिद्धि
यदि सूक्ष्मता से अवलोकन कर देखा जाय तो मालूम पड़ता है कि प्रारम्भ ही इसका मोक्षप्राभूतको सामने रख कर हुआ है और लगभग मोक्षप्राभृतके समग्र विषयको स्वीकार कर इसकी रचना की गयी है। प्राभृती प्रथम गाथा यह है
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गाणमयं अप्पाणं उवलयं जेण झडियकम्मेण । चऊण व परवव्यं णमो नमो तस्स देवस्स ।। 1 ।। अब इसके प्रकाश में समाधितन्त्रका प्रथम मंगलश्लोक देखिएयेनात्मयतात्मेव परत्वेनंव चापरम् । अक्षयानन्तयोषाय तस्मे सिद्धात्मने नमः ॥ 1 ॥
अब मोक्षप्राभृतकी एक दूसरी गाथा लीजिए
जं मया दिसवे रूपं तं न जाणदि सम्बहा जागो विस्सदे ण सं सम्हा जंपेमि केण हं ॥
इसी विषयको समाधितन्त्र में ठीक इन्हीं शब्दों में व्यक्त किया गया है
यन्मया दृश्यते रूपं
तन्न जानाति सर्वथा । जानन्न दृश्यते रूपं ततः केन ब्रवीम्यहम् ॥ 18 ॥
इतना ही नहीं समाधितन्त्र लिखते समय आचार्य पूज्यपादके सामने आचार्य कुन्दकुन्दका समयप्राभूत अन्य भी उपस्थित था यह इसके अवलोकनसे स्पष्टतः विदित होता है। आचार्य कुन्दकुन्दने अभ्यन्तर परिणामोंके बिना केवल बाह्यलिंग मोक्षमार्ग में उपयोगी नहीं है यह बतलाते हुए समयप्राभूतमें कहा हैपाडीलिंगानि व मिलिगानि व बहुप्यवाराणि । वितुं वदंति मूढा सिगमिणं मोक्यमग्गो ति ॥ 408 ॥ म उ होदि मोमो लिगं जं देहनिम्ममा अरिहा । लिंगं मुद्दतु दंसणणाणचरिताणि सेयंति ॥ 409 1
इसी तथ्यको आचार्य पूज्यपादने समाधितन्त्र में इन शब्दों में व्यक्त किया है
लिङ्ग वेहाश्रितं दृष्टं वह एवं आत्मनो भवः । न मुच्यते भवातस्माले ये लिङ्गकृताग्रहाः ॥ जातिर्वेहाथिता दृष्टा देह एवात्मनो भवः । न मुच्यन्ते भवातस्मासे ये जातिकृताग्रहाः ॥
इसमें जरा भी सन्देह नहीं है कि जो साधक अपने आत्मकार्य में उद्यत होना चाहते हैं उनके लिए यह मोक्षमार्ग अनुसन्धान में प्रदीपस्तम्भ के समान है। इसमें आत्मा के बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा ये तीन भेद करके किस प्रकार यह जीव बहिरात्मपदके त्याग द्वारा अन्तरात्मा बनकर परमात्मपदको प्राप्त करता है इसका सरल और हृदयग्राही कविता में विवेचन किया गया है।
3 इष्टोपदेश इसमें कुल मिलाकर 51 श्लोक हैं। विषय स्वरूप सम्बोधन है ग्रन्थका नाम इष्टीपदेश है यह स्वयं आचार्य पूज्यपादने इसके अन्तिम श्लोक में व्यक्त किया है ।
इसका निर्माण करते हुए आचार्य पूज्यपादके सामने एकमात्र यही दृष्टि रही है कि किसी प्रकार यह संसारी आत्मा अपने स्वरूपको पहचाने और देह, इन्द्रिय तथा उनके कार्योंको अपना कार्य न मानकर आत्मकार्य में सावधान होनेका प्रयत्न करे । समयप्राभृतका स्वाध्याय करते समय हमें इस भावके पद-पद पर दर्शन होते हैं और इसलिए हम कह सकते हैं कि समयप्राभृत आदिके विषयको आत्मसात् करके ही इसका निर्माण किया गया है। तुलना के लिए देखिए
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