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प्रस्तावना
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अंशको यथावत् सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है। किन्तु जैसा कि अन्य तथ्योंसे सिद्ध है कि पाणिनि-व्याकरणके कर्ता पाणिनि ऋषि पूज्यपादसे बहुत पहले हो गये हैं। इतना ही नहीं पाणिनि व्याकरण पर जो कात्यायनका वार्तिक और पतंजलिका महाभाष्य प्रसिद्ध है वह भी पूज्यपादके कई शताब्दियों पहले लिखा जा चुका था। अतएव केवल इस कथाके आधार पर यह तो नहीं कहा जा सकता कि आचार्य पूज्यपाद पाणिनिके समय में हुए हैं और उन्होंने उनके अधूरे व्याकरणको पूरा किया था। कथा में और भी ऐसी अनेक घटनाओं का उल्लेख है जिन्हें अतिशयोक्तिपूर्ण कहा जा सकता है। किन्तु एक बात स्पष्ट है कि आचार्य पूज्यपाद पाणिनि व्याकरण, उसके वार्तिक और महाभाष्यके मर्मज्ञ थे । इससे ऐसा मालूम पड़ता है कि ये ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए होंगे और अपने जीवनकालके प्रारम्भ में वे अन्य धर्मके माननेवाले रहे होंगे। अतः इस कथा में जो उनके पिता, माता व कुल आदिका परिचय दिया है वह कदाचित् ठीक भी हो। जो कुछ भी हो, तत्काल इस कथाके आधारसे हम इतना कह सकते हैं कि पूज्यपाद ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। उनके पिताका नाम माधवभट्ट और माताका नाम श्रीदेवी था। वे कोले' नामक ग्रामके रहनेवाले थे और उनका जन्म नाम पूज्यपाद था। उन्होंने विवाह न कर बचपन में ही जैनधर्म स्वीकार कर लिया था और आगे चलकर उन्होंने साँपके मुंहमें मेंढक तड़पता हुआ देख मुनिदीक्षा ले ली थी। उन्होंने अपने जीवन काल में गगनगामी लेपके प्रभावसे कई बार विदेहक्षेत्रकी यात्रा की थी। श्रवणबेल्गोलके एक शिलालेखके आधारसे यह भी कहा जा सकता है कि जिस जलसे उनके चरण धोये जाते थे उसके स्पर्शसे लोहा भी सोना बन जाता था। उनके चरणस्पर्शसे पवित्र हुई धूलिमें पत्थरको सोना बनानेकी क्षमता थी इस बातका उल्लेख तो कथा लेखकने भी किया है। एक बार तीर्थयात्रा करते समय उनकी दृष्टि तिमिराच्छन्नहो गयी थी। जिसे उन्होंने शान्त्यष्टकका निर्माण कर दूर किया था। किन्तु इस घटनाका उनके ऊपर ऐसा प्रभाव पड़ा जिससे उन्होंने तीर्थयात्रासे लौटकर समाधि ले ली थी।
स्वरचित साहित्य -आचार्य पूज्यपादने अपने जीवन-काल में सर्वार्थसिद्धि सहित जिस साहित्यका निर्माण किया था उसका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
1. सर्वार्थसिदि-इसका विस्तृत परिचय हम पहले दे आये हैं।'
2. समाषितन्त्र- इसमें कुल मिलाकर 105 श्लोक हैं । विषय अध्यात्म है। ग्रन्थका नाम समाधितन्त्र है। इसकी सूचना स्वयं आचार्य पूज्यपादने इसके अन्तिम श्लोक में दी है। एक तो श्रवणबेल्गोलके शक सं० 1085 के शिलालेख 40 में इसका नाम समाधिशतक दिया है। दूसरे बनारससे मुद्रित होनेवाले प्रथम गुच्छकमें भी टिप्पण सहित यह छपा है और उसके अन्तमें एक प्रशस्ति श्लोक उद्धृत है जिसमें श्लेष रूपसे इसका नाम समाधिशतक सूचित किया गया है। मालूम पड़ता है कि इन्हीं कारणोंसे इसका दूसरा नाम समाधिशतक प्रसिद्ध हुआ है।
यद्यपि यह ग्रन्थ आचार्य पूज्यपादकी स्वतन्त्र कृति है पर अन्तःपरीक्षणसे विदित होता है कि आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा निर्मित आगमको आत्मसात् कर उन्होंने इसकी रचना की है। उदाहरणस्वरूप नियमसारमें यह गाथा आती है
णियभावंण विमुंच परभावं व गिण्हए केई।
जाणवि पस्सदि सव्वं सोहं इदि चितए जाणी।।97॥ अब इसकी तुलना समाधितन्त्रके इस श्लोकसे कीजिए
यवपाह्यं न गृह्णाति गृहीतं नापि मुञ्चति । जानाति सर्वथा सर्व तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम् ॥30॥
1. 'श्रीपूज्यपादमुनिरप्रतिभौषद्धिजीयाद्विदेहजिनदर्शनपूतगात्रः। यत्पादधौतजलसंस्पर्शप्रभावाकालायसं किल तदा कनकीचकार ॥' शिलालेख 108 (शक सं0 1355)। 2. देखो प्रस्तावना पृ० 23 ।
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