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सर्वार्थसिद्धि
जन्मे थे इन सब बातोंका परिचय श्रीमान् पं० नाथूरामजी प्रेमीने देवनन्दि और उनका जैनेन्द्र व्याकरण' लेख में दिया है। उन्होंने यह परिचय कनटी भाषामें लिखे गये पूज्यपादचरिते' के आधार से लिखा है। इसके लेखक 'चन्द्रस्य' कवि थे। श्रीमान पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारके लेखसे यह भी विदित होता है कि उनका यह जीवनचरित 'राजावलिकये' में भी दिया हुआ है। किन्तु इन दोनोंमें कहाँ तक सत्य और वैषम्य है यह इससे विदित नहीं होता । प्रेमीजीके शब्दों में कथा संक्षेप में इस प्रकार है
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'कर्नाटक देशके 'कोले' नामक ग्राम के माधवभट्ट नामक ब्राह्मण और श्रीदेवी ब्राह्मणीसे पूज्यपादका जन्म हुआ । ज्योतिषियोंने बालकको त्रिलोक पूज्य बतलाया। इस कारण उसका नाम पूज्यपाद रखा गया । माधव भट्टने अपनी स्त्रीके कहने से जैनधर्म स्वीकार कर लिया। भट्टनीके सालेका नाम पणिनि' था उसे भी उन्होंने जैन बनने को कहा । परन्तु प्रतिष्ठा के ख्यालसे वह जैन न होकर मुडीकुंड ग्राम में वैष्णव संन्यासी हो गया । पूज्यपादकी कमलिनी नामक छोटी बहन हुई, वह गुणभट्टको व्याही गयी और गुणभट्टको उससे नागार्जुन नामक पुत्र हुआ।
पूज्यपादने एक बगीचे में एक सपिके मुंहमें फँसे हुए मेंढकको देखा । इससे उन्हें वैराग्य हो गया और वे जैन साधु बन गये ।
पाणिनि अपना व्याकरण रच रहे थे। वह पूरा न हो पाया था कि उन्होंने अपना मरणकाल निकट आया, जानकर पूज्यपादसे कहा कि इसे तुम पूरा कर दो। उन्होंने पूरा करना स्वीकार कर लिया ।
पाणिनि दुर्ध्यानवश मरकर सर्प हुए। एक बार उसने पूज्यपादको देखकर फूत्कार किया । इस पर पूज्यपादने कहा - विश्वास रखो, मैं तुम्हारे व्याकरणको पूरा कर दूंगा। इसके बाद उन्होंने पाणिनि व्याकरणको पूरा कर दिया।
इसके पहले वे जैनेन्द्र व्याकरण, अर्हस्प्रतिष्ठालक्षण और वैदक ज्योतिष के कई ग्रन्थ रच चुके थे। गुणके मर जाने नागार्जुन अतिशय दरिद्री हो गया। पूज्यपादने उसे पद्मावतीका एक मन्त्र दिया और सिद्ध करने की विधि भी बतला दी। उसके प्रभावसे पद्मावतीने नागार्जुनके निकट प्रकट होकर उसे सिद्धरसकी वनस्पति बतला दी ।
इस सिद्धिरसे नागार्जुन सोना बनाने लगा। उसके गर्वका परिहार करने के लिए पूज्यपादने एक मामूली वनस्पतिमे कई घड़ सिद्धरम बना दिया। नागार्जुन जय पर्वतोंको सुवर्णमय बनाने लगा तब धरणेन्द्र पद्मावतीने उसे रोका और जिनालय बनाने को कहा। तदनुसार उसने एक जिनालय बनवाया और पार्श्वनाथ की प्रतिमा स्थापित की।
पूज्यपाद पैरोंमें गगनगामी लेप लगाकर विदेहक्षेत्रको जाया करते थे। उस समय उनके शिष्य वचनन्वीने अपने साबियोंसे झगड़ा करके बि संघकी स्थापना की।
नागार्जुन अनेक मन्त्र तन्त्र तथा रसादि सिद्ध करके बहुत ही प्रसिद्ध हो गया । एक बार दो सुन्दरी स्त्रियाँ आयी जो नाचने कुशल थीं। नागार्जुन उन पर मोहित हो गया। वे वहीं रहने लगीं और कुछ समय बाद ही उसकी रसगुटिका लेकर चलनी बनीं।
गाने में
पूज्यवाद मुनि बहुत समय तक योगाभ्य स करते रहे। फिर एक देवविमान में बैठकर उन्होंने अनेक तीर्थों की यात्रा की । मार्ग में एक जगह उनकी दृष्टि नष्ट हो गयी थी, सो उन्होंने एक शान्त्यष्टक बनाकर ज्यों की त्यों कर ली। इसके बाद उन्होंने अपने ग्राम में आकर समधिपूर्वक मरण किया ।'
श्री मोतीचन्द्र गौतमचन्द्र कोठारी फलटनवालोंने मदर्थसिद्धिके एक अन्यतम संस्करणका सम्पादन किया है जो सोलापुरसे प्रशित हुआ है। उसमें उन्होंने कुछ युक्तियाँ देकर इस कथाके व्याकरण सम्बन्धी
1. देखो जैन साहित्य और इतिहास, पृ० 123 2 देखो रत्नकरण्डककी भूमिका ।
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