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सर्वार्थसिद्धि
"वयं सल्लवखणियं उप्पादव्वयधुवससंजुत्तं । गुणपपासयं वा जंतं भवंति सम्यन् ॥"
अब इस गाथा के प्रकाशमें तत्त्वार्थसूत्र के इन सूत्रोंको देखिए-
सद् द्रव्यलक्षणम् ॥ 5, 29 11 उत्पादव्यय श्रीव्ययुक्तं सत् ॥ 5, 30 ॥ गुणपर्ययवद् द्रव्यम् ॥ 5, 30 बहुत से ऐसे वचन हैं जिनका आचार्य कुन्दकुन्द के वचनों के साथ तथा तत्त्वार्थसूत्र में नाथय' जैसे शब्दों का व्यवहार हुआ है।
इसके सिवाय तत्त्वमें और भी शाब्दिक और वस्तुगत साम्य दिखाई देता है इससे उसके कर्ता दिगम्बर परम्पराके हैं यही सिद्ध होता है ।
समय - नामके समान आचार्य गूढपिच्छके समयका प्रश्न भी बहुत अधिक विचारणीय है। साधारणतः दिन उल्लेखोंका इनके समयपर सीधा प्रकाश पड़ता है ऐसे दो उल्लेख हमारे सामने हैं। प्रथम नन्दिसंपकी पट्टावलीका उल्लेख और दूसरा वजन बोधक में उद्धृत इनके समय की सूचना देनेवाला उल्लेख 1. नन्दिसंघकी पट्टावली विक्रमके राज्याभिषेकसे प्रारम्भ होती है और यह इंडियन एंटीक्वेरीके आधारसे जैन सिद्धान्तभास्कर किरण, 4. पृ० 78 में जिस रूपमें उद्धृत हुई है उसका प्रारम्भिक अंश इस प्रकार है-
हुए।
'भद्रबाहु द्वितीय (4) 2 गुप्तिगुप्त ( 26 ) 3 मामनन्दि ( 36 ) 4 जिनचन्द ( 40 ) 5 कुन्दकुन्दा चार्य (49) 6 उमास्वामी (101) 7 लोहाच र्य ( 142 ) 8 यश: कीर्ति (153) 9 यशोनन्दी (211) 10 देवनन्दी (258) 11 जयनन्दी (308) 12 गुणनन्दी (358) 13 वज्रनन्दी (364) 14 कुमारनन्दी (386) 15 लोकचन्द (427) 16 प्रभाचन्द्र (453) 17 नेमिचन्द्र (478) 18 भानुनन्दी (487) 19 हिनदी (508) 20 श्री वसुनन्दी (525) 21 वीरनन्दी (531) 22 रत्ननन्दी (561) 23 माणिक्यनन्दी (585) 24 मेघचन्द्र (601) 25 शान्तिकीर्ति (627) 26 मेरुकीति (642) ।'
गुप्तिगुप्त यह अहं बलिका दूसरा नाम है । इन्होंने अन्य संघों के साथ जिस नन्दिसंघकी स्थापना की थी उसके पहले पट्टधर आचार्य माघनन्दि थे । इस हिसाब से उमास्वामी (गृद्धपिच्छ ) नन्दिसंघ के पट्टपर बैठनेवाले पौधे आभार्य ठहरते हैं। यद्यपि पट्टावली में ये क्रमांक 6 पर सूचित किये गये हैं पर भद्रबाहु द्वितीय और अद्बलिको छोड़कर ही नन्दिसंघ के आचार्योंकी गणना करनी चाहिए। इसलिए यहाँ हमने उमास्वामी (पिच्छ) का क्रमांक 4 सूचित किया है इस पट्टावलिके अनुसार ये वीर नि० सं० 571 में हुए
थे ।
2. विद्वज्जन बोधक में यह श्लोक उद्धृत मिलता है
"वर्षसप्तशते चैव सप्तत्या च विस्मृतौ । उमास्वामिमुनिर्मातः कुन्दकुन्वस्तथेव च ॥"
इसका भाव है कि वीर नि० सं० 770 में उमास्वामी मुनि हुए तथा उसी समय कुन्दकुन्द आचार्य
अब हम अन्य प्रमाणको देखें
1. इन्द्रनन्दिके श्रुतावतार में पहले 683 वर्षकी श्रुतधर आचार्योंकी परम्परा दी है। और इसके बाद अंगपूर्व के एकदेशधारी विनमधर श्रीदत्त और अर्हतका नामोल्लेख कर नन्दिसंघ आदि संपकी स्थापना
1. देखो तत्त्वार्थसूत्र, अ० 9, सू० 9 1 2. पाण्डवपुराणके कर्ता शुभचन्द्र ने अपनी परम्परा दी है। उसमें भी 10 आचार्यों तक यही क्रम स्वीकार किया गया है। और आगे भी एकाध नामको छोड़कर आचार्योंके नामोंमें समानता देखी जाती है। वे अपनेको नन्दिसंधका ही घोषित करते हैं। देखो जनसिद्धान्त भास्कर, भाग 1, किरण 4. पृष्ठ 51 ।
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