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सर्वार्थसिद्धि
'त' या 'त' के स्थान में 'म' लिखा जानेसे ये दोनों नाम चल पड़े होंगे। इसी प्रकार उमास्वाति या उमास्वाभी नामका कहीं गृद्धपिच्छ इस अपर नागके साथ उल्लेख मिलने से और कहीं इनमेंसे किसी एकका उल्लेख मिलनेसे इस सम्बन्ध में भी यह कहा जा सकता है कि इस तरह पूरे या अधूरे नामके लिखने की भी परम्परा रही है और हो सकता है कि उसी परम्पराके अनुसार विविध प्रकारसे इन नामोंका उल्लेख किया जाने लगा होगा।
यहाँ हम इन तर्कोको सत्यता स्वीकार करते हैं। फिर भी देखना यह है कि एक आचार्य नन्दिसंघ तथा कुन्दकुन्द की परम्परामें हुए और दूसरे अन्य परम्परमें हुए और इनके समयमें काफी अन्तर है फिर भी दोनोंका एक ही शास्त्रकी रचनासे सम्बन्ध और एक ही नाम यह स्थिति उत्पन्न हुई कैसे? यह कहना तो बनता नहीं कि श्वेताम्बर पम्परामें हए वाचक उमास्वाति इस नामको देखकर गद्धपिच्छने अपना उमास्वाति यह नाम भी रखा होगा, क्योंकि पट्टावलियों व दूसरे प्रमाणोंको देखनेसे विदित होता है कि गद्धपिच्छ आचार्य कुन्दकुन्दके बाद हुए हैं। जब कि वाचक उमास्वातिका अस्तित्वकाल इसके बहुत बाद आता है। साथ ही यह कहना भी नहीं बनता है कि गूद्धपिच्छ उमास्वाति इस नामको देखकर वाचक उमास्वातिने अपना 'उमास्वाति' यह नाम रखा होगा, क्योंकि तत्त्वार्थभाष्य के अन्त में जो प्रशस्ति उपलब्ध होती है उसमें वाचक उमास्वातिका 'उमास्वाति' नाम क्यों रखा गया इसका कारण दिया है। उसमें बतलाया गया है कि इनके पिताका नाम स्वाति' था और सिद्धसेन गणिने इस प्रशस्तिकी व्याख्या करते हुए यह भी लिखा है कि इनकी माताका नाम 'उमा' था। इसलिए इनका उमास्वाति यह नाम पड़ा है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि यह प्रशस्ति बाद में गढ़ी गयी होगी, क्योंकि तत्त्वार्थभाष्यके टीकाकार सिद्धसेन गणिने इसका उल्लेख ही नहीं किया व्याख्यान भी किया है और ऐसा करके उन्होंने उसे तत्त्वार्थभाष्यका अंग प्रसिद्ध किया है। इस विषयमें हम पं० सुखलालजीके इस मतसे सहमत हैं कि यह स्वयं तत्त्वार्थभाष्यकार वाचक उमास्वातिकी ही कृति है।
प्रसंगसे यहाँ पर हम एक बात यह कह देना चाहते हैं कि अधिकतर विद्वान् जहाँ किसी प्रशस्ति, पट्रावली या शिलालेख आदिसे अपना मत नहीं मिलता वहाँ उसे सर्वथा अप्रामाणिक या जाली घोषित करते हैं। किन्तु उनकी यह प्रवृत्ति विचारपूर्ण नहीं कही जा सकती। कारण कि प्राचीन कालमें इतिहासके संकलनके साधन प्रायः सीमित थे। अधिकतर इतिहासके संकलन करनेवालोंका कथकों पर अवलम्बित रहना पड़ता था और जिसे प्रामाणिक आधारोंसे जो ज्ञात होता था वह उसका अंकन करता था। इसलिए यह तो सम्भव है कि किसी शिलालेख आदिमें कोई नाम, समय या घटना सही रूप में निबद्ध हो गयी हो और किसी शिलालेख आदि में वह कुछ भ्रष्टरूप में निबद्ध हुई हो। पर साम्प्रदायिक अभिनिवेशवश किये गये उल्लेखोंको छोड़कर निबद्ध करनेवालेका उद्देश्य जानबूझकर उसे भ्रष्टरूपसे निबद्ध करनेका नहीं रहता था इतना सुनिश्चित है। प्रसिद्ध धवला टीकाके रचयिता आचार्य वीरसेनने इस सम्बन्ध में एक बहुत अच्छी विचारसरणि उपस्थित की है। उन्हें भगवान् महावीर की आयु 72 वर्ष की थी एक यह मत प्राप्त हुआ और भगवान् महावीरकी आयु 71 वर्ष 3 माह 25 दिनकी थी एक यह मत प्राप्त हुआ, इसलिए उनके सामने प्रश्न था कि इनमेंसे किसे प्रमाण माना जाय ? इसी प्रश्नके उत्तरस्वरूप वे जो कुछ लिखते हैं वह न केवल हृदयग्राही है अपितु अनुकरणीय भी है। वे कहते हैं कि 'इन दोनोंमें से कौन ठीक है और कौन ठीक नहीं है इस विषय में एलाचार्यका शिष्य मैं वीरसेन अपना मुख नहीं खोलता, क्योंकि इन दोनोंमेंसे किसी एकको मानने पर कोई बाधा नहीं उत्पन्न होती। किन्तु इन दोनों में से कोई एकमत ठीक होना चाहिए सो प्राप्त कर उसका कथन करना चाहिए।'
1. 'कौभीषणिना स्वातितनयेन-'। 2. वात्सीसुतेनेति गोत्रेण नाम्ना उमेति मातुराख्यानम् । 3. देखो पं० सुखलालजीकी तत्त्वार्थसूत्रकी प्रस्तावना पृ०4। 4. जयधवला पुस्तक 1 पृ० 81 ।
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