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सर्वार्थसिद्धि
समय पर भी सर्वांगीण प्रकाश पड़ता है। वे सब मन्तव्यों और विद्वानोंके मतोंका ऊहापोह करने के बाद जिस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं वह यह है
'इतनी लम्बी चर्चा करने के बाद हम इस तथ्य पर पहुँचते हैं कि परम्पराके अनुसार इनका (आचार्य कुन्दकुन्दका) अवस्थिति काल ईसवी पूर्व प्रथम शताब्दीके मध्यसे लेकर ईसवी प्रथम शताब्दीके मध्यके भीतर आता है । षट्खण्डागम ईसवी द्वितीय शताब्दी के मध्यकालके पूर्व लिखा जा चुका था, इसलिए इस दृष्टि से उनका अवस्थिति काल ईसवी द्वितीय शताब्दीके मध्यके आसपास आता है। मर्कराके ताम्रपत्रके अनुसार आचार्य कुन्दकुन्दकी अन्तिम सीमा ईसवी तृतीय शताब्दीके मध्यके पूर्व मानी जा सकती है। इसके साथ ही साथ वे शायद शिवस्कन्द राजाके समकालीन तथा कुरलके लेखक थे। इससे यह प्रतीत होता है कि आचार्य कुन्दकुन्द ऊपर बतलायी गयी प्रथम दो शताब्दियों में थे। मैं इन सबका विचारकर इस तथ्यपर पहुँचा हूँ कि कुन्दकुन्द ईसवी प्रथम शताब्दी में हुए हैं।।'
यह तथ्य है जो आचार्य कुन्दकुन्दके समय के सम्बन्ध में डॉ. ए. एन. उपाध्येने सूचित किया है। नन्दिसंघकी पट्टावली में उल्लिखित समयकी सीमा लगभग यही है, इसलिए इन सब आधारोंको ध्यान में रखकर यह कहा जा सकता है कि आचार्य गृद्धपिच्छका समय ईसवी प्रथम शताब्दीमें हुए आचार्य कुन्दकुन्दके बाद होना चाहिए, क्योंकि पट्टावलियों व दूसरे शिलालेखों में आचार्य कुन्दकुन्द के बाद ही इनका नाम आता है और सम्भव है इन दोनोंके मध्य गुरु-शिष्यका सम्बन्ध रहा है। नन्दिसंघकी पट्टावलिके अनुसार ये आचार्य कुन्दकुन्दके उत्तराधिकारी हैं यह तो स्पष्ट ही है।
5. तत्वार्यसूत्रके निर्माणका हेतु-लोक में यह कथा प्रसिद्ध है कि किसी एक भव्यने मोक्षमार्गोपयोगी शास्त्रके निर्माणका विचार कर तदनुसार 'दर्शनशानचारित्राणि मोक्षमार्गः' सूत्र रचकर दीवाल पर लिख दिया । इसके बाद रोजगार के निमित्त उसके बाहर चले जाने पर चर्या के निमित्त गृदपिच्छ आचार्य वहाँ आये और उन्होंने दीवाल पर लिखे हुए सूत्रको अधूरा देखकर उसके प्रारम्भ में 'सम्यक' पद जोड़ दिया। जब वह भव्य बाहरसे लौटा और उसने सूत्रके प्रारम्भमें 'सम्यक' पद जुड़ा हुआ देखा तो वह आश्चर्य करने लगा। उसने घरके सदस्योंसे इसका कारण पूछा और ठीक कारण जानकर वह खोजता हुआ गृद्धपिच्छ आचार्यके पास पहुँचा और उन पर अपने अभिप्रायको व्यक्त कर उनसे शास्त्रके रचनेकी प्रार्थना करने लगा। तदनुसार आचार्य महाराजने तत्त्वार्थसूत्रकी रचना की।
यहाँ देखना यह है कि यह कथा लोक में प्रचलित कैसे हुई ? क्या इसकी प्रामाणिकताका कोई विश्वस्त आधार है या यह कोरा भावुकतासे प्रेरित श्रद्धालुओंका उच्छवासमात्र है ? आगे इसी तथ्यका सांगोपांग विचार किया जाता है
1. श्रुतसागर सूरिने तस्वार्थवृत्तिके प्रारम्भमें लिखा है कि किसी समय आचार्य उमास्वामी (गडपिच्छ) आश्रम में बैठे हुए थे। उस समय द्वैयाक नामक भव्यने वहाँ आकर उनसे प्रश्न किया-भगवन् ! आस्माके लिए हितकारी क्या है ? भव्यके ऐसा प्रश्न करनेपर आचार्यवर्यने मंगलपूर्वक उत्तर दिया-मोक्ष । यह सुनकर द्वैयाकने पुनः पूछा-उसका स्वरूप क्या है और उसकी प्राप्तिका उपाय क्या है ? उत्तरस्वरूप
येने मोक्षका स्वरूप बसला कर कहा कि यद्यपि मोक्षका स्वरूप इस प्रकार है तथापि प्रवादीजन इसे अभ्यथा प्रकारसे मानते हैं। इतना ही नहीं किन्तु इसके मार्गके विषय में भी वे विवाद करते हैं। कोई चारित्र. शन्य ज्ञानको मोक्षमार्ग मानते हैं, कोई श्रद्धानमात्रको मोक्षमार्ग मानते हैं और कोई ज्ञाननिरपेक्ष चारित्रको
1. प्रवचनसारकी प्रस्तावना पृ० 22 के आधारसे। 2. इस कथाका आधार 13वीं शतीमें हए बालचन्द्र मुनि रचित तत्वार्थसूत्रकी कनड़ी टीका ज्ञात होती है। इसमें श्रावकका नाम सिद्धय्य दिया है। देखो पं. कैलाशचन्द्रजीके तत्वार्थसूत्रकी प्रस्तावना पृ० 16 ।
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