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प्रस्तावना
मोक्षमार्ग मानते हैं। किन्तु जिस प्रकार ओषधिके केवल ज्ञान, दर्शन या प्रयोगसे रोगकी निवृत्ति नहीं हो सकती उसी प्रकार केवल दर्शन, केवल ज्ञान या केवल चारित्रसे मोक्षकी प्राप्ति नहीं हो सकती। भव्यने पूछा तो फिर किस प्रकार उसकी प्राप्ति होती है ? इसीके उत्तरस्वरूप आचार्यवर्याने 'सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि मोक्षमार्ग:' यह सूत्र रचा और परिणामस्वरूप तत्त्वार्थसूत्र की रचना हुई है।
2. सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक में भी यही उत्थानिका दी है। श्रुतसागर सूरिने यह उत्थानिका सर्वार्थसिद्धसे ही ली है। अन्तर केवल इतना है कि जिस भव्यने जाकर आचार्य गद्धपिच्छसे प्रश्न किया है उसे सर्वार्थसिद्धि में 'कश्चिद् भव्यः' कहा गया है और श्रुतसागर सूरि उसके नामका उल्लेख करते हैं। कह नहीं सकते उन्होंने उस भव्यका यह नाम किन स्रोतोंसे प्राप्त किया। - तत्त्वार्थसूत्रकी इन प्रसिद्ध टीकाओंके उल्लेखोंसे लोककथाके इस भागका तो समर्थन होता है कि तस्वार्थसूत्रकी रचना किसी भव्यके निमित्तसे हुई। किन्तु यह ज्ञात नहीं होता कि पहले उस भव्यने 'दर्शनज्ञानचारित्राणि' सूत्र रचा और बाद में उसमें सुधारकर भव्यकी प्रार्थना पर सूत्रकारने तत्त्वार्थसूत्रकी रचना की। इसलिए इन उल्लेखोंसे कथाके सर्वांशका समर्थन न होने पर भी किसी अंशतक वह साधार है यह मानने में कोई आपत्ति नहीं दिखाई देती।
4. आचार्य पूज्यपाद 1. महता-भारतीय परम्परामें जो लब्धप्रतिष्ठ तत्त्वद्रष्टा शास्त्रकार हए हैं उनमें आचार्य पूज्यपाद का नाम प्रमुख रूपसे लिया जाता है। इन्हें प्रतिभा और विद्वत्ता दोनोंका समान रूपसे वरदान प्राप्त था। जैन परम्परामें आचार्य समन्तभद्र और सन्मतिके कर्ता आचार्य सिद्धसेन के बाद साहित्यिक जगत में यदि किसी को उच्चपद पर बिठलाया जा सकता है तो वे आचार्य पूज्यपाद ही हो सकते हैं। इन्होंने अपने पीछे जो साहित्य छोड़ा है उसका प्रभाव दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में समानरूपसे दिखाई देता है। यही कारण है कि उत्तरकालवर्ती प्रायः अधिकतर साहित्यकारों व इतिहास मर्मज्ञोंने इनकी महत्ता, विद्वत्ता और बहुजता स्वीकार करते हुए इनके चरणोंमें श्रद्धाके सुमन अर्पित किये हैं। आदिपुराणके कर्ता आचार्य जिनसेन इन्हें कवियों में तीर्थकर मानते हुए इनकी स्तुति में कहते हैं---
कवीनां तीर्थकदेवः किंतरां तत्र वर्ण्यते ।
विदुषां वाङ्मलध्वंसि ती यस्य वचोमयम् ॥1,52॥ जो कवियों में तीर्थंकरके समान थे और जिनका वचनरूपी तीर्थ विद्वानोंके वचनमलको धोनेवाला है उन देव अर्थात देवनन्दि आचार्यकी स्तुति करने में भला कौन समर्थ है।
यह तो हम आगे चलकर बतलानेवाले हैं कि जिस प्रकार इन्होंने अपनी अनुपम कृतियों द्वारा मोक्षमार्गका प्रकाश किया है उसी प्रकार इन्होंने शब्दशास्त्र पर भी विश्वको अपनी रचनाएँ भेंट की हैं। कहा तो यहाँ तक जाता है कि शरीरशास्त्र जैसे लोकोपयोगी विषयको भी इन्होंने अपनी प्रतिभाका विषय बनाया था। तभी तो ज्ञानार्णवके कर्ता आचार्य शुभचन्द्र इनके उक्त गुणोंका ख्यापन करते हुए कहते हैं
अपाकुर्वन्ति यहाचः कायवाञ्चित्तसम्भवम् ।।
कलमणिनां सोऽयं देवनन्दी ममस्यते ॥1,15॥ जिनकी शास्त्रपद्धति प्राणियों के शरीर, वचन और चित्तके सभी प्रकारके मलको दूर करने में समर्थ है उन देवनन्दी आचार्यको मैं प्रणाम करता है।
आचार्य गुणनन्दिने इनके व्याकरण सूत्रोंका आश्रय लेकर जैनेन्द्र प्रक्रियाकी रचना की है। वे इसका मंगलाचरण करते हुए कहते हैं
ममः भीपूज्यपादाय लक्षणं यापकमम् । यदेवात्र तबन्यत्र पम्नानास्ति न तत्त्वचित् ॥
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