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प्रस्तावना
शिलालेख (चन्द्रगिरि)
गौतम गणधर
तत्वार्थभाष्य प्र० वाचकमुख्य शिवश्री
तपागच्छ पट्टावली जिनभद्रगणि
भद्रबाहु (अन्वयमें)
घोषनन्दि क्षमण
विबुधप्रभ
चन्द्रगुप्त (शिष्य)
वाचक उमास्वाति
जयानन्द
पद्मनन्दि (अन्वयमें)
रविप्रभ
गृपिच्छ उमास्वाति (अन्यय में)
उमास्वाति
बलाकपिच्छ शिष्य
इस प्रकार ये तीन परम्पराएं हमारे सामने हैं। इनमें से तपागच्छ पट्टावलिके विषय में तो इतना ही कहना है कि धर्मसागर गणिके सामने तत्त्वार्थभाष्यको प्रशस्ति के रहते हुए जो उन्होने तपागच्छ के आचार्योंकी परम्पराके साथ उमास्वातिका उल्लेख किया है सो इसका कारण केवल युगप्रधान आचार्यके रूप में उमास्वाति. को उनके वास्तव्य कालके साथ स्वीकार करना मात्र है। जिनभद्र गणिके विषय में भी यही बात है। ये दोनों तपागच्छ परम्परके आचार्य नहीं हैं और न ऐसा धर्मसागर गणि ही मानते हैं। यही कारण है कि उन्होंने तपागच्छ परम्पराका स्वतन्त्र निर्देश करते हुए बीच में इनका युगप्रधान आचार्य के रूप में उल्लेखमात्र किया है, इसलिए इसे और इसके साथ पायी जानेवाली थोड़ेसे मतभेदको लिये हुए अन्य प्रशस्तियों को छोड़ कर हमारे सामने मुख्य दो परम्पराएँ रहती हैं-एक श्रवणबेल्गोल में पाये जानेवाले शिलालेखोंकी परम्परा और दूसरी तस्वार्थभाष्यके अन्त में पायी जानेवाली प्रशस्तिकी परम्परा ।
देखनेसे विदित होता है कि इन दोनों उल्लेखोंमें दोनोंकी न केवल गुरुपरम्परा भिन्न-भिन्न है अपितु दोनोंके उपपद या नामान्तर भी भिन्न-भिन्न हैं। श्रवणबेल्गोलके शिलालेखोंकी परम्परा जब कि तत्त्वार्थसूत्रकारको गुपिच्छ उमास्वाति घोषित करती है ऐसी अवस्था में तत्त्वार्थभाष्यकी प्रशस्ति उन्हें वाचक उमास्वाति इस नामसे सम्बोधित करती है, इसलिए इन आधारोंसे हमारा तो यही विचार दढ होता है कि गढपिच्छ उमास्वातिसे वाचक उमास्वाति भिन्न आचार्य होने चाहिए।
___ इस प्रकार इतने विवेचनसे इन दोनों आचार्योंके अलग-अलग सिद्ध हो जानेपर यहाँ यह देखना है कि गवपिच्छ उमास्वाति इस नाममें कहाँ तक तथ्य है, क्योंकि इस नामके विषय में हमें कई तरहके उल्लेख मिलते हैं। कहीं इनको केवल गृपिच्छ कहा गया है और कहीं गृद्धपिच्छ उपपदयुक्त उमास्वामी या उमास्वाति कहा गया है। कहीं गद्धपिच्छको उमास्वातिका दूसरा नाम बतलाया गया है तो कहीं केवल उमास्वाति नाम आता है । यद्यपि देखने में ये सब नाम अलग-अलग प्रतीत होते हैं । जैसे उमास्वातिसे उमास्वामी नाम भिम्म है। यहां यह कहा जा सकता है कि पहले इनमेंसे कोई एक नाम रहा होगा और बाद में 'म' के स्थान में
1. जिनेन्द्र कल्याणाभ्युदयमें अन्वयावलिके वर्णनके प्रसंगसे एक श्लोक आता है जिसमें कुन्दकन्द जाचार्य और उमास्वाति दोनोंको वाचक कहा गया है और धवला टीकाके अन्तिम भागके देखनेसे यह भी विदित होता है कि दिगम्बर परम्परामें भी वाचक' उपपद व्यवहृत होता था। किन्तु जिनेन्द्र कल्याणाभ्युदयका प्रमाण अपेक्षाकृत बहुत अर्वाचीन है और केवल इस आधारसे तत्त्वार्थभाष्य के वाचक उमास्वातिको और श्रवणबेल्गोलके शिलालेखोंके गृखपिच्छ उमास्वातिको एक नहीं माना जा सकता। देखो पं० सुखलालजीकृत तत्त्वार्थसूत्रकी प्रस्तावनाके परिशिष्टमें उद्धृत पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारका पत्र ।
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