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प्रस्तावना
वे यहाँ यह तो कहते हैं कि उचित आधारोंपर जो ठीक प्रतीत हो उसे प्रमुखता दी जाय पर एकको सर्वथा जाली और दूसरेको सर्वथा सत्य घोषित करनेका प्रयत्न करना ठीक नहीं है।
इस प्रासंगिक कथनसे स्पष्ट है कि तत्त्वार्थसूत्रके विषय में दिगम्बर परम्परामें जो शिलालेख व उद्धरण आदि मिलते हैं वे भी साधार हैं और श्वेताम्बर परम्परामें जो उल्लेख मिलते हैं वे भी साधार हैं। इसलिए किसी एकको प्रामाणिक और अन्यको अप्रामाणिक घोषित करना हमारा कार्य नहीं है, किन्तु अन्य प्रमाणोंके प्रकाश में उनकी स्थिति स्पष्ट करना इतना ही हमारा कार्य है। और इस कार्यका निर्वाह करते हुए प्रस्तावना में विविध स्थलों पर व्यक्त किये गये तथ्यों के आधारसे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि श्वेताम्बर परम्परामें तत्त्वार्थाधिगम शास्त्रके रचयिताका नाम तो वाचक उमास्वाति ही है, किन्तु जिन्होंने प्रारम्भमें तत्त्वार्थसूत्रकी रचना की और जो आचार्य कुन्दकुन्दकी परम्परामें हुए हैं उनका नाम गृद्धपिच्छ उमास्वाति, गृपिच्छ उमास्वामी, उमास्वाति या उमास्वामी यह कुछ भी न होकर मात्र गृद्धपिच्छाचार्य होना चाहिए। . तत्त्वार्थसूत्रके रचयिता गद्धपिच्छ आचार्य हैं इस तथ्यको व्यक्त करनेवाले उल्लेख 9वीं शताब्दीके हैं। तथा लगभग इसी कालमें श्वेताम्बर परम्परामें भी यह मान्यता प्रचलित हुई जान पड़ती है जैसा कि सिद्धसेन गणिके शंकास्पद कुछ उल्लेखोंसे प्रतीत होता है, कि तत्त्वार्थभाष्यके रचयिता वाचक उमास्वाति ही तत्त्वार्यसूत्रके रचयिता हैं। अतः मालूम पड़ता है कि इन दोनों मान्यताओंने मिलकर एक नयी मान्यताको जन्म दिया और उत्तरकालमें गृद्धपिच्छ और उमास्वाति ये स्वतन्त्र दो आचार्यों के दो नाम मिलकर एक नाम बने और आगे चलकर गृद्धपिच्छ उमास्वाति इस नामसे तत्त्वार्थ सूत्रके रचयिताका उल्लेख किया जाने लगा। हमें श्रवणबेल्गोलके शिलालेखोंमें या अन्यत्र जो एक आचार्य के लिए इन नामोंका या गृपिच्छको उपपद मानकर उमास्वाति नामका व्यवहार होता हुआ दिखाई देता है उसका कारण यही है।
तत्त्वार्थसूत्रके रचयिताका नाम गुद्धपिच्छ आचार्य होना चाहिए और वाचक उमास्वाति इनसे भिन्न हैं इस मतको संक्षेप में इन तथ्यों द्वारा व्यक्त किया जा सकता है
1. तत्त्वार्थसूत्रकी रचनाके साथ आचार्य गृद्धपिच्छका नाम जुड़ना अकारण नहीं हो सकता।
2. आचार्य वीरसेन, विद्यानन्द और वादिराजने तत्त्वार्थसूत्रके रचयिताका नाम गद्धपिच्छाचार्य ही व्यक्त किया है और ये उल्लेख अन्य प्रमाणोंसे प्राचीन हैं।
3. श्वेताम्बर परम्परामें तत्त्वार्थभाष्यके रचयिता जो आचार्य हए हैं उनका नाम वाचक उमास्वाति है, गृद्धपिच्छ उमास्वाति नहीं। अत: गृद्धपिच्छ उमास्वाति यह नाम गद्धपिच्छ और उमास्वाति इन दोनों नामोंके मेलसे बना है ऐसा प्रतीत होता है ।
___4. गृद्धपिच्छाचार्य कुन्दकुन्द आचार्यके अन्वयमें हुए हैं और .. उभास्वातिकी परम्परा दूसरी है, इसलिए ये स्वतन्त्र दो आचार्य होने चाहिए, एक नहीं।
5. गृद्धपिच्छाचार्य और वाचक उमास्वाति इन दोनोंके वास्तव्य कालमें भी बड़ा अन्तर है, इसलिए भी ये एक नहीं हो सकते।
परम्परा-तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता किस परम्पराके थे इस विषयमें नामविषयक उक्त निर्णयके आधारसे ही बहुत कुछ विवाद समाप्त हो जाता है, क्योंकि जिन तथ्योंके प्रकाश में उनका आचार्य गद्धपिच्छ यह नाम निश्चित होता है उन्हीं के आधारसे वे एक मात्र दिगम्बर परम्पराके सिद्ध होते हैं। आचार्य कुन्दकुन्दके वे साक्षात् शिष्य हों या न भी हों पर वे हुए हैं उन्हींकी वंशपरम्परामें यह बात पूर्व में दी गयी वंशपरम्परा और अन्य प्रमाणोंसे सिद्ध है। आचार्य कुन्दकुन्दके पञ्चास्तिकाय में यह गाथा आती है
1. जयधवला पुस्तक 1पृ०811
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