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सर्वार्थसिद्धि
पर्यायवाची ही कहा है। स्पष्ट है कि यहां पर भी तत्त्वार्थभाष्यकारकी व्याख्या मूल सूत्रका अनुसरण नहीं करती।
3. तत्त्वार्थभाष्यकारने अध्याय 10 सूत्र क्षेत्रकालगति' इत्यादि सूत्रकी व्याख्या करते हुए शब्द, समभिरूढ और एवंभूत इन तीनको मूल नय मान लिया है जब कि वे ही प्रथम अध्याय में उस सूत्र पाठको स्वीकार करते हैं जिसमें मूल नयों में केवल एक शब्दनय स्वीकार किया गया है। स्पष्टतः उनका 10वें अध्यायमें शब्दादिक तीन नयोंको मूलरूपसे स्वीकार करना और प्रथम अध्याय में एक शब्दनयको मूल मानना परस्पर विरुद्ध है।
4. श्वेताम्बर तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 2 सूत्र 52 में 'चरमवेहोत्तमपुरुष' पाठको स्वीकार करता है। तत्त्वार्थभाष्यकार ने प्रारम्भ में इस पदको मानकर ही उसकी व्याख्या की है। किन्तु बादमें वे 'उसमपुरुष पदका त्याग कर देते हैं और मात्र 'परमवेह' पदको स्वीकार कर उसका उपसंहार करते हैं। इससे विदित होता है कि तत्त्वार्थभाष्यकारको इस सूत्र के कुछ हेरफेरके साथ दो पाठ मिले होंगे। जिनमें से एक पाठको उन्होंने मुख्य मानकर उसका प्रथम व्याख्यान किया। किन्तु उसको स्वीकार करनेपर जो आपत्ति आती है उसे देखकर उपसंहारके समय उन्होंने दूसरे पाठको स्वीकार कर लिया। स्पष्ट है कि इससे तत्त्वार्थभाष्यकार ही तत्त्वार्थसूत्रकार हैं इस मान्यताको बड़ा धक्का लगता है ।
5. तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 4 सूत्र 4 में प्रत्येक देवनिकायके इन्द्रादिक 10 भेद गिनाये हैं। किन्तु तत्वार्थभाष्यकार इन दस भेदोंके उल्लेखके साथ अनीकाधिपति नामका ग्यारहवाँ भेद और स्वीकार करते हैं। इसी प्रकार इसी अध्यायके 26वें सूत्र में लौकान्तिक देवोंके सारस्वत आदिक नौ भेद गिनाये हैं, किन्तु तत्त्वार्थभाष्यकार अपने भाष्य में यहां नौके स्थान में आठ भेद ही स्वीकार करते हैं। वे कहते हैं-'एते सारस्वताबयोऽष्टविषा देवा ब्रह्मलोकस्य पूर्वोत्तरादिषु विक्ष प्रदक्षिणं भवन्ति यथासंख्यम्।'
ये ऐसे प्रमाण हैं जो पण्डितजी की पूर्वोक्त मान्यताके विरुद्ध जाते हैं। स्पष्ट है कि पण्डितजीकी उक्त मान्यताके आधारसे भी तत्त्वार्थभाष्यकारको तत्त्वार्थसूत्रका कर्ता नहीं माना जा सकता।
पं० सुखलालजीकी तीसरी मान्यता है कि प्रारम्भिक कारिकाओं में और कुछ स्थानोंपर भाष्य में 'वक्ष्यामि, वक्ष्यामः' आदि प्रथम पुरुषकी क्रियाओंका निर्देश है आदि, इसलिए तत्त्वार्थसूत्रकार और तत्त्वार्थभाष्यकार एक ही व्यक्ति हैं। किन्तु पण्डितजी की यह कोई पुष्ट दलील नहीं है । अकसर टीकाकार मूलकारसे तादात्म्य स्थापित कर इस प्रकारकी क्रियाओंका प्रयोग करते हैं। उदाहरणके लिए देखो अध्याय 1 सूत्र 1 की सर्वार्थसिद्धि टीका, अध्याय 8 सूत्र 1 की उत्थानिका तत्त्वार्थवातिक', अध्याय 8 सत्र। की उत्थानिका हरिभद्रकी टीका व अध्याय 10 सूत्र 1 की उत्थानिका सिद्धसेन गणिकी टीका। यहाँ सिद्धसेन गणि कहते हैं 'सम्प्रति तत्फलं मोक्षः, तं वक्ष्यामः।' सच केवलज्ञानोत्पत्तिमन्तरेण न जातुचिबभूव भवति भविष्यति अतः केबलोत्पत्तिमेव तावद् वक्ष्यामः। इसलिए इस आधारसे भी तत्त्वार्थभाष्यकार वाचक उमास्वाति तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता नहीं सिद्ध होते।
श्वेताम्बर पट्टावलियां-श्वेताम्बर पट्टावलियोंके देखनेसे भी इस स्थितिकी पुष्टि होती है। इनमें सबसे पुरानी कल्पसूत्र स्थविरावली और नन्दिसूत्रकी पट्टावलि है। किन्तु इन में समय नहीं दिया है। समय गणना बहुत पीछेकी पट्टावलियों में है। कहा जाता है कि नन्दिसूत्र पट्टावली वि० सं० 510 में संकलित हुई थी। इनमें उमास्वाति व उनके गुरुओंके नाम नहीं हैं।
1. शब्दादयश्च त्रयः। 2. पं० लालबहादुरजी शास्त्रीने जैन सिद्धान्तभास्कर भाग 13 किरण 1 में क्या भाष्य स्वोपज्ञ और उसके कर्ता यापनीय हैं' इस शीर्षकसे एक लेख मुद्रित कराया है। उससे भी इस विषयपर सुन्दर प्रकाश पड़ता है। 3. एतेषां स्वरूपं लक्षणतो विधानतश्च पुरस्ताद्विस्तरेण निर्देष्यामः। 4. अवसरप्राप्तं बन्धं व्याचक्ष्महे। 5. बन्ध इति वर्तते । एतच्चोपरिष्टाहर्शयिष्यामः ।
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