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सर्वार्थसिद्धि
'प्रन्थकार एव द्विषा आत्मनं विभज्य सूत्रकारभाष्यकारेणेवमाह-शास्तीति सूत्रकार इति शेषः । अश्या पर्यायवात् पर्यायिणो भेद इत्यन्यः सूत्रकारपर्यायोऽन्यच भाष्यकारपर्याय इत्यतः सूत्रकारपर्यायः शास्तीति।'
इसमें बतलाया गया कि 'ग्रन्थकारने अपनेको सूत्रकार और भाष्यकार इस तरह दो भागों में विभक्त करशास्ति' ऐसा कहा है। इसलिए यहाँपर 'शास्ति' क्रियाके साथ उसके कर्ताका बोध कराने के लिए 'सत्रकार' पद जोड़ लेना चाहिए। अथवा पर्यायीके भेदसे पर्यायीको भिन्न मान लेना चाहिए। अतः एक ही ग्रन्थकारको सूत्रकार पर्याय भिन्न है और भाष्यकार पर्याय भिन्न है, अत: सूत्रकार पर्यायसे युक्त ग्रन्थकार कहते हैं ऐसा सम्बन्ध कर लेना चाहिए।
ऐसा ही एक दूसरा उल्लेख अध्याय दोके निरुपभोगमन्त्यम्' सूत्रकी सिद्धसेनीय टीका में मिलता है। इसमें सूत्रकारसे भाष्यकारको अभिन्न बतलाया गया है। उल्लेख इस प्रकार है
'सूत्रकारावविभक्तोऽपि हि भाष्यकारी विभागमावशंयति व्युच्छित्ति-(पर्याय) नयसमाश्रयणात।'
इस प्रकार यद्यपि इन उल्लेखोंसे यह विदित होता है कि सिद्धसेन गणि तत्त्वार्थसूत्रकार और तत्त्वार्थभाष्यकार इन दोनों व्यक्तियोंको एक मानते रहे हैं, पर इतने मात्रसे यह नहीं माना जा सकता कि यह उनका निश्चित मत था। उन्होंने अपनी टीकामें कुछ ऐसा भी अभिप्राय व्यक्त किया है जिसके आधारसे विचार करने पर सूत्रकारसे भाष्यकार भिन्न सिद्ध होते हैं। इसके लिए अध्याय आठके 'मत्यादीमाम्' सूत्रकी टीका देखनी चाहिए।
यहां पर सिद्धसेन गणिके सामने यह प्रश्न है कि जब अन्य आचार्य 'मतिभुतावषिमन:पर्ययकेवलामाम' सूत्र मानते हैं तब सूत्रका वास्तविक रूप 'मत्यादीनाम्' भाना जाय या अन्य आचार्य जिस प्रकार उसका पाठ पढ़ते हैं वैसा माना जाय। इस शंकाका समाधान करते हुए पहले तो उन्होंने हेतुओंका आश्रय लिया है किन्तु इतने मात्रसे स्वयं सन्तोष होता न देख वे कहते हैं कि यतः भाष्यकारने भी इस सत्रका इसी प्रकार मर्च किया है अत: 'मत्यावीनाम्' ही सूत्र होना चाहिए। उनका समस्त प्रसंगको व्यक्त करनेवाला टीकावचन इस प्रकार है
'अपरेस प्रतिप पच्चापि पठन्ति-मतितावषिमनःपर्ययकेवलानामिति। एवं चापाकापाठो लक्ष्यते। ततोऽनन्तरसू पञ्चाविभेवा ज्ञानावरणादय इत्यवतमेव । निर्माताश्च स्वस्पतः प्रथमाध्याये व्याख्यातत्वात् । अतः आदिशब्द एव च युक्तः। भाष्यकारोऽप्येवमेव सूत्रार्थमावेवयते।'
___ यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य भाष्यकारो-' इत्यादि वचन है। इस वचन में भाष्यकारका सम्बन्ध सीधा मत्याचीलाम' सूत्रकी रचनाके साथ स्थापित न कर उसके अर्थके साथ स्थापित किया गया है। इससे सिद्ध होता है कि यहाँपर सिद्धसेन गणि सूत्रकारको भाष्यकारसे भिन्न मान रहे हैं, अन्यथा वे किसी अपेक्षासे सूत्रकार और भाष्यकार में अभिन्नता स्थापित कर अपनी भाषाद्वारा इस प्रकार समर्थन करते जिससे भाष्यकारसे अभिन्न सूत्रकारने ही 'मत्यादीनाम्' सूत्र रचा है इस बातका दृढ़ताके साथ समर्थन होता।
जहाँ तक हमारा मत है इन पूर्वोक्त उल्लेखोंके आधारसे हम एक मात्र इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि मूल तत्त्वार्थसूत्रकार और तत्त्वार्थभाष्यकार अभिन्न व्यक्ति हैं इस विषयमें सिद्धसेन गणिकी स्थिति संशयापन्न रही है, क्योंकि कहीं वे तत्त्वार्थसूत्रकार और तत्त्वार्थभाष्यकार इनको एक व्यक्ति मान लेते हैं और कहीं दो। इस स्थिति को देखते हुए मालूम ऐसा देता है कि सिद्धसेन गणिके काल तक तस्वार्थभाष्यकार ही मूल तत्त्वार्थसूत्रकार हैं यह मान्यता दृढमूल नहीं हो पायी थी। यही कारण है कि सिद्धसेन गणि किसी एक मतका निश्चयपूर्वक प्रतिपादन करने में असमर्थ रहे।
पण्डितजी-इस प्रकार सिद्धसेन गणिकी टीकाके आधारसे वाचक उमास्वाति तत्त्वार्थसूत्रके रचयिता हैं इस बातके अनिर्णीत हो जाने पर भी यहाँ हमें प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजीके एतद्विषयक प्रमाणोंका असगसे
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