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प्रस्तावना
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परामर्श कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है। इस विषय में उन्होंने जिन तीन प्रमाणोंको उपस्थित किया । उनका हम पहले पृष्ठ 62 में निर्देश कर आये हैं। उनमेंसे पहला प्रमाण उत्था निकाकी 22वीं कारिका अं: तत्त्वार्थभाष्यके अन्त में पायी जानेवाली प्रशस्ति है। इन दोनों स्थलोंमेंसे उत्थानिका कारिकामें तत्त्वार्थाधिगम नामक लघुग्रन्थके कहनेकी प्रतिज्ञा की गयी है और अन्तिम प्रशस्तिमें वाचक उमास्वातिने तत्त्वार्थाधिगम शास्त्र रचा यह कहा गया है। पण्डितजी इस आधारसे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता वाचक उमास्वाति ही हैं। किन्तु हम यह पहले (पृष्ठ 17 में) ही सिद्ध करके बतला आये हैं कि तत्त्वार्थाधिगम यह नाम तत्त्वार्थसूत्रका न होकर तत्त्वार्थभाष्यका है। स्वयं वाचक उमास्वाति तत्त्वार्थाधिगमको सूत्र न कहकर उसे ग्रन्थ या शास्त्र शब्द द्वारा सम्बोधित करते हैं और आगे तत्त्वार्थाधिगमके रचने का प्रयोजन बतलाते हए 22वीं उत्थानिका कारिकामें कहते हैं कि जिन वचन महोदधि दुर्गम ग्रन्थभाष्यपार होनेसे उसका समझना कठिन है। ऐतिहासिकोंसे यह छिपी हुई बात नहीं है कि यहाँ वाचक उमास्वातिने आगम ग्रन्थों के जिन भाष्योंका उल्लेख किया है वे विक्रम की 7वीं शताब्दीकी रचना हैं। जब कि इनके भी पूर्व तत्त्वार्थसूत्र पर सर्वार्थ सिद्धि प्रभृति अनेक टीकाएँ लिखी जा चुकी थीं। ऐसी अवस्था में 21वीं उत्थानिका कारिका और अन्तिम प्रशस्तिके आधारसे वाचक उमास्वातिको मूल तत्त्वार्थसूत्रका कर्ता सिद्ध करना तो कोई अर्थ नहीं रखता।
पण्डितजी की दूसरी युक्ति में कहा गया है कि तत्त्वार्थभाष्यके आलोडनसे ऐसा लगता है कि तत्त्वार्थभाष्य में सूत्रका अर्थ करने में कहीं भी खीचातानी नहीं की गयी है आदि । यहाँ विचार इस बातका करना है कि क्या तत्त्वार्थभाष्यकी वैसी स्थिति है जैसी कि पण्डितजी उसके विषयमें उद्घोषणा करते हैं या वैसी स्थिति नहीं है। इस दृष्टि से हमने भी तत्त्वार्थभाष्यका आलोडन किया है, किन्तु हमें उसमें ऐसे अनेक स्थल दिखाई देते हैं जिनके कारण इस दृष्टि से तत्त्वार्थभाष्यकी स्थिति सन्देहास्पद प्रतीत होती है । यथा
1. तत्त्वार्थसूत्र में सम्यग्दर्शनीसे सम्यग्दृष्टिको भिन्न नहीं माना गया है। वहां अध्याय 7 सूत्र 23 में ऐसे सम्यग्दर्शनवालेको भी सम्यग्दष्टि कहा गया है जिसके शंका आदि दोष सम्भव होते हैं। किन्तु इसके विपरीत तत्त्वार्थभाष्य में सम्यग्दर्शनी और सम्यग्दृष्टि इन दोनों पदोंकी स्वतन्त्र व्याख्या करके सम्यग्दर्शनीसे सम्यग्दृष्टिको भिन्न बतलाया गया है। वहाँ कहा गया है कि जिसके आभिनिबोधिक ज्ञान होता है वह सम्यग्दर्शनी कहलाता है और जिसके केवलज्ञान होता है वह सम्यग्दृष्टि कहलाता है। स्पष्ट है कि यहाँ पर तत्त्वार्थभाष्यकार तत्त्वार्थसूत्रका अनुसरण नहीं करते और सम्यग्दृष्टि पदकी तत्त्वार्थसूत्र के विरुद्ध अपनी दो व्याख्याएं प्रस्तुत करते हैं। एक स्थल (अ० 1 सू०8) में वे जिस बात को स्वीकार करते हैं दूसरे (अ07 सू० 23) में वे उसे छोड़ देते हैं।
2. तत्त्वार्थसूत्र में मति, स्मृति और संज्ञा आदि मतिज्ञानके पर्यायवाची नाम हैं। किन्तु तत्त्वार्थभाष्यकार इन्हें पर्यायवाची नाम न मानकर 'मतिः स्मृतिः' इत्यादि सूत्र के आधारसे मतिज्ञान, स्मृतिज्ञान आदिको स्वतन्त्र ज्ञान मानते हैं। सिद्धसेन गणिने भी तत्त्वार्थभाष्य के आधारसे इनको स्वतन्त्र ज्ञान मानकर उनकी व्याख्या की है। यह कहना कि सामान्य मतिज्ञान व्यापक है और विशेष मतिज्ञान, स्मतिज्ञान आदि उसके भ्याप्य हैं कुछ सयुक्तिक नहीं प्रतीत होता, क्योंकि मतिज्ञान वर्तमान अर्थको विषय करता है। इस तथ्यको जब स्वयं तत्त्वार्थभाष्यकार स्वीकार करते हैं ऐसी अवस्थामें मति, स्मृति आदि नाम मतिज्ञानके पर्यायवाची ही हो सकते हैं भिन्न-भिन्न ज्ञान नहीं। तथा दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्पराके आगमोंमें इन्हें मतिज्ञानके
1. देखो उत्थानिका कारिका 21 व अन्तिम प्रशस्ति तत्त्वार्थभाष्य। 2. महतोऽतिमहाविषयस्य दुर्गमग्रन्थभाष्यपारस्य। कः शक्तो प्रत्यासं जिनवचनमहोदधेः कर्तुम् ।। 3. देखो पं० कैलाशचन्द्रजीके तत्वार्थसूत्रकी प्रस्तावना पृ० 121 4. देखो तत्त्वार्थसूत्र अ. 1 सू० 8 का तत्त्वार्थभाष्य। 5. देखो अध्याय ! सूत्र 13 का तत्त्वार्थभाष्य।
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