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सर्वार्थसिद्धि
पादन करनेवाला सूत्र भी जितना अधिक दिगम्बर परम्पराके नजदीक है उतना श्वेताम्बर परम्पराके नजदीक नहीं है।
3. बाईस परीषहों मेंसे एक साथ एक जीवके कितने परीषह हो सकते हैं इसका विचार करते हुए श्वेताम्बर आगम साहित्य (व्याख्याप्रज्ञप्ति श.8) में बतलाया है कि सात और आठ प्रकारके कर्मोका बन्ध करनेवाले जीवके 22 परीषह होते हैं। परन्तु ऐसा जीव एक साथ बीस परीषहोंका ही वेदन करता है। दो कौनसे परीषह कम हो जाते हैं इस बातका उल्लेख करते हुए वहाँ बतलाया है कि जिस समय वह जीव शीत परीषहका वेदन करता है उस समय वह उष्ण परीषहका वेदन नहीं करता और जिस समय उष्ण परीषहका वेदन करता है उस समय वह शीत परीषहका वेदन नहीं करता। इस प्रकार एक परीषह तो यह कम हो जाता है। तथा जिस समय चर्या परीषहया वेदन करता है उस समय निषद्यापरीषहका वेदन नहीं करता और जिस समय निषद्यापरीषहका वेदन करता है उस समय चर्या परीषहवा वेदन नहीं करता। इस प्रकार एक परीषह यह कम हो जाता है। कुल बीस परीषह रहते हैं जिनका वेदन यह जीव एक साथ करता है।
किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में परीषहों के एक साथ वेदन करनेकी अधिक-से-अधिक संख्या 19 निश्चित की गयी है। यहां हमें युक्तिसंगत क्या है इसका विचार नहीं करना है। बतलाना केवल इतना ही है कि तत्त्वार्थसूत्रकारका इस प्रकारका निर्देश भी श्वेताम्बर आगम परम्पराका अनुसरण नहीं करता।
4. "जिन के ग्यारह परीषह होते हैं। इस सूत्रका विस्तारके साथ विचार हम 'पाठभेद और अर्थान्तरप्यास' प्रकरण में कर आये हैं । वहाँ हमने तत्त्वार्थसूत्रकारकी दृष्टि को स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि परीषहों के प्रसंगसे सूत्रकारकी दृष्टि मुख्यतया अन्तरंग कारणों के विवेचन करनेकी रही है। वे किस कर्मके उदय में कितने परीषह होते हैं इतना कहकर अधिकारी भेदसे अलग-अलग परीषहों की संख्याका निर्देश करते हैं। पर इसका यह अर्थ नहीं कि अन्तरंग कारणों के अनुसार जहाँ जितने परीषहोंका उल्लेख उन्होंने किया है वहीं उतने परीषहोंका सद्भाव वे नियम से मानते ही हैं। उन्होंने परीषह प्रकरणके अन्तिम सूत्र में परीषहोंका कार्यके अनुसार भी अलगसे विधान किया है। वे कहते हैं कि यद्यपि कुल परीषह बाईस हैं तथापि एक जीवके एक साथ एकसे लेकर उन्नीस तक परीषह हो सकते हैं । स्पष्ट है कि इस अन्तिम सूत्रके प्रकाश में यह अर्थ नहीं फलित किया जा सकता है कि जिस प्रकार तत्त्वार्थसूत्रकारने कर्मनिमितको अपेक्षा कहाँ कितने परीषह होते हैं इस बातका विधान किया है उसी प्रकार उन्हें सर्वत्र उनका कार्य भी इष्ट है। इसका तो केवल इतना ही अर्थ है कि अन्तरंग कारणोंके अनुसार सर्वत्र परीषहोंकी सम्भावना स्वीकार कर लेने पर भी यदि उन परीषहोंके जो अन्य बाह्य निमित्त हैं वे नहीं मिलते तो एक भी परीषह नहीं होता । तभी तो सूत्रकार 1 परीषहसे लेकर 19 परीषह तक होने रूप विकल्पका कथन करते हैं । यथा किसी प्रमत्तसंयत साधुके सब कर्मोका उदय । होनेसे सब परीषह सम्भव हैं पर उनके परीषहों के बाह्य निमित्त एक भी नहीं हैं तब उन्हें एक भी परीषहका वेदन न होगा, यदि एक परीषहका बाह्य निमित्त है तो एक परीषहका वेदन होगा और अधिक परीषहोंके बाह्य निमित्त उपस्थित हैं तो अधिक परीषहोंका वेदन होगा। तात्पर्य यह है कि केवल अन्तरंग कारणोंके सद्भावसे परीषहोंका वेदन कार्य नहीं माना जा सकता । स्पष्ट है कि तत्त्वार्थसूत्रकारकी दृष्टि केवल अन्तरंग कारणोंके सदभाव में उनके कार्यको स्वीकार करने की नहीं है। उन्होंने तो मात्र अन्तरंग कारणोंकी दृष्टिसे जहां जिन परीषहों के कारण मौजूद हैं वहाँ उनका उल्लेखमात्र किया है।
__ इस दृष्टिसे हमने श्वेताम्बर आगम साहित्यका आलोडन किया है। किन्तु वहाँ तत्त्वार्थसूत्रकारकी दृष्टिसे सर्वथा भिन्न दृष्टि अपनायी गयी प्रतीत होती है। वहाँ जहाँ जितने परीषह सम्भव हैं उनमें से विरोधी परीषहोंको छोड़कर सबके वेदन की बात स्वीकार की गयी है। वहाँ यह स्वीकार ही नहीं किया गया है कि
1. तत्त्वार्थसूत्र 409, सू० 171 2. देखो, पृ० 25 आदि ।
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