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सर्वार्थ सिद्धि
पत्रकी अन्यतम टीका अर्हत्सूत्रवृत्तिका है। तत्त्वार्थसूत्रके एक श्वेताम्बर टिप्पणकार भी इस मतसे परिचित थे, उन्होंने अपने टिप्पण में इस मतका उल्लेख कर अपने सम्प्रदायको सावधान करनेका प्रयत्न किया है।
समीक्षा-इस प्रकार ये सात अन्य मत हैं जिनमें तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता कौन हैं इस बात का विचार किया गया है। इनमें से प्रारम्भ के श्वेताम्बर तत्त्वार्थभाष्यके उल्लेखको छोड़कर शेष सब उल्लेख लगभग 13वीं शताब्दीसे पूर्वके नहीं हैं और मुख्यतया वे गृद्धपिच्छ और उमास्वाति इन दो नामोंकी ओर ही किसी रूप में संकेत करते हैं। एक अन्तिम मत कि 'आचार्य कुन्दकुन्द तत्त्वार्थसूत्रके रचयिता हैं' अवश्य ही विलक्षण लगता है, किन्तु आचार्य कुन्दकुन्दकी गृद्धपिच्छ इस नामसे ख्याति होने के कारण ही यह मत प्रसिद्धि में आया है ऐसा प्रतीत होता है। मुख्य मत दो ही है जो यहाँ विचारणीय हैं। प्रथम यह कि आचार्य गद्धपिच्छ तत्त्वार्थसूत्रके रचयिता हैं और दूसरा यह कि वाचक उमास्वातिने तत्त्वार्थसूत्रकी रचना की है।
___साधारणतः हम पहले 'तत्त्वार्थसूत्र' इस नामके विषय में विचार करते हुए 'सूत्रपाठोंमें मतभेद' प्रकरणको लिखते हुए और पौर्वापर्यविचार' प्रकरण द्वारा सर्वार्थसिद्धि व तत्त्वार्थभाष्य की तुलना करते हुए कई महत्त्वपूर्ण बातोंपर प्रकाश डाल आये हैं जिनका सारांश इस प्रकार है...
1. वाचक उमास्वातिने तत्त्वार्थाधिगम शास्त्रकी रचना की थी। किन्तु यह नाम तत्त्वार्थसूत्रका न हो कर सत्त्वार्थभाष्यका है।
2. सूत्रपाठों में मतभेदका उल्लेख करते समय यह सिद्ध करके बतलाया गया है कि यदि तत्त्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थभाष्य के कर्ता एक ही व्यक्ति होते और श्वेताम्बर आचार्य इस तथ्यको समझते होते तो श्वेताम्बर सूत्रपाठमें जितना अधिक मतभेद उपलब्ध होता है वह नहीं होना चाहिए था।
3. सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थभाष्यके पौर्वापर्यका विचार करते समय हम बतला आये हैं कि वाचक उमास्वातिके तत्वार्थभाष्य लिखे जाने के पहले ही तत्त्वार्थसूत्रपर अनेक टीका-टिप्पणियां प्रचलित हो गयी थीं। वहाँ हमने एक ऐसे सूत्र का भी उल्लेख किया है जो सर्वार्थ सिद्धिमान्य सूत्रपाटसे सम्बन्ध रखता है और जिसे वाचक उमास्वातिने अपने तत्त्वार्थभाष्यमें उद्धृत किया है। अर्थविकासकी दृष्टि से विचार करते हुए इसी प्रकरणमें यह भी बतलाया गया है कि सर्वार्थ सिद्धि और तत्त्वार्थभाष्य को सामने रख कर विचार करनेपर यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि ऐसे कई प्रसंग हैं जो तत्त्वार्थभाष्यको सर्वार्थ सिद्धिके बादकी रचना ठहराते हैं। और यह सिद्ध करते समय हमने एक उदाहरण यह भी दिया है कि कालके उपकार प्रकरण में परत्वापरत्वके सर्वार्थसिद्धि में केवल दो भेद किये गये हैं जब कि तत्त्वार्थभाष्यमें वे तीन उपलब्ध होते हैं।
इसलिए इन व दूसरे तथ्योंसे यह स्पष्ट हो जानेपर भी कि वाचक उमास्वाति आद्य तत्त्वार्थसूत्रकार नहीं होने चाहिए, इस विषयके अन्तिम निर्णय के लिए कुछ अन्य बातों पर भी दृष्टिपात करना है।
किसी भी रचयिताके सम्प्रदाय आदिका निर्णय करने के लिए उस द्वारा रचित शास्त्र ही मुख्य प्रमाण होता है। किसी भी शास्त्र में कुछ ऐसे बीज होते हैं जो उस शास्त्रके रचनाकाल व शास्त्रकारके सम्प्रदाय आदिपर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं। तत्त्वार्थसूत्रकारके समयादिका विचार करते समय प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजीने भी इस सरणिको अपनाया है। किन्तु वहां उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थभाष्य इन दोनोंको एकातक मानकर इस बात का विचार करनेका प्रयत्न किया है। इससे बहुत बड़ा धुटाला हुआ है। वस्तुतः इस बातका विचार केवल तत्त्वार्थसूत्रको और उसमें भी तत्त्वार्थसूत्रके उन सूत्रों को सामने रखकर ही होना चाहिए जो तत्त्वार्थसूत्र में दोनों सम्प्रदायोंको मान्य हों। इससे निष्पक्ष समीक्षा द्वारा किसी एक निर्णयपर पहुंचने में बहुत बड़ी सहायता मिलती है।
1. पं. कैलाशचन्द्रजीका तत्त्वार्थसुत्र, प्रस्तावना ५० 171 2. इसके लिए देखो हमारे द्वारा लिखे गये तत्त्वार्थसूत्रकी प्रस्तावना। 3. देखो प्रवचनसारकी डॉ० ए० एन० उपाध्येकी भूमिका। 4. देखो पं० सुखलालजी द्वारा लिखित तत्वार्थसूत्रकी प्रस्तावना, पृ०8 आदि ।
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