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सर्वार्थसिद्धि
उन महान् गुणोंके आकर गृद्धपिच्छको मैं नमस्कार करता हूँ जो निर्वाणको उड़कर पहुंचनेकी इच्छा रखनेवाले भव्योंके लिए पंखोंका काम देते हैं।
यद्यपि वादिराजसूरिने यहाँपर आचार्य गुद्धपिच्छके किसी अन्यका नामोल्लेख नहीं किया है तथापि यहाँ वे उन्हीं शास्त्रकारोंका स्मरण कर रहे हैं जिन्होंने मोक्षमार्गोपयोगी साहित्यकी सृष्टि कर संसारका हित किया है। वादिराजसूरिकी दृष्टि में तत्त्वार्थसूत्रके रचयिता आचार्य गद्धपिच्छ उनमें सर्वप्रथम हैं।
इनमें से प्रथम दो उल्लेख विक्रमकी नौवीं शताब्दी के और अन्तिम उल्लेख ग्यारहवीं शताब्दीका है। इससे मालम पड़ता है कि इस काल तक जैन परम्परामें तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता आचार्य गृद्धपिच्छ हैं एकमात्र यही मान्यता प्रचलित थी।
अन्य मत-किन्तु इस मतके विरुद्ध तीन चार मत और मिलते हैं जिनकी यहाँ चर्चा कर लेना प्रासंगिक है।
1. श्वेताम्बर तत्त्वार्थभाष्यके अन्त में एक प्रशस्ति उपलब्ध होती है। उसमें कहा गया है कि जिनके दीक्ष गुरु ग्यारह अंगके धारक घोषनन्दि क्षमण थे और प्रगुरु वाचकमुख्य शिवश्री थे, वाचनाकी अपेक्षा जिनके गुरु मूल नामक वाचकाचार्य और प्रगुरु महावाचक मुण्डपाद थे, जो गोत्रसे कोभीषणि थे और जो स्वाति पिता और वात्सी माताके पुत्र थे, जिनका जन्म न्यग्रोधिकामें हुआ था और जो उच्चानागर शाखाके थे, उन उमास्वाति वचकने गुरुपरम्परासे प्राप्त हुए श्रेष्ठ अहंद्वचनको भली प्रकार धारण करके तथा दुरागम द्वारा हतबुद्धि दःखित लोकको देखकर प्राणियोंकी अनुकम्पावश यह तत्त्वार्थाधिगम नामका शास्त्र विहार करते हुए कुसुमपुर नामके महानगर में रचा है। जो इस तत्त्वार्थाधिगमको जानेगा और उसमें कथित मार्गका अनुसरण करेगा वह अव्याबाध सुख नामके परमार्थको शीघ्र ही प्राप्त करेगा।'
इसी प्रकार तत्त्वार्थभाष्यके प्रारम्भमें जो 31 उत्थानिका कारिकाएँ उपलब्ध होती हैं उनमेंसे 22वीं कारिकामें कहा गया है कि 'अहंद्वचन के एकदेशके संग्रहरूप और बहुत अर्थवाले इस तत्त्वार्थाधिगम नामवाले लघु प्रत्यको मैं शिष्योंके हितार्थ कहता हूँ।'
प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजी उत्थानिकाकी इस कारिका और अन्तिम प्रशस्तिको विशेष महत्त्व देते है। वे इन्हें मूल सूत्रकारकी मानकर चलते हैं ।
इसके सिवा उन्होंने तत्त्वार्थसूत्रकार और तत्त्वार्थभाष्यकार इनको अभिन्न सिद्ध करनेके लिए दो युक्तियाँ और दी हैं
(क) प्रारम्भिक कारिकाओं में और कुछ स्थानोंपर भाष्य में भी 'वक्ष्यामि', 'वक्ष्यामः' आदि प्रथम पुरुषका निर्देश है और इस निर्देशमें की हुई प्रतिज्ञाके अनुसार ही बादमें सूत्र में कथन किया गया है। इससे सूत्र और भाष्य दोनोंको एककी कृति मानने में सन्देह नहीं रहता।
(ख) शुरुसे अन्ततक भाष्यको देख जानेपर एक बात मनमें बैठती है और वह यह है कि किसी भी स्थलपर सूत्र का अर्थ करने में शब्दोंकी खींचातानी नहीं हुई, कहीं भी सूत्रका अर्थ करने में सन्देह या विकल्प करने में नहीं आया, इसी प्रकार सूत्रकी किसी दूसरी व्याख्याको मनमें रखकर सूत्रका अर्थ नहीं किया गया और न कहीं सूत्रके पाठभेदका ही अवलम्बन लिया गया है।
2. पं० नाथूरामजी प्रेमीका लगभग यही मत है। इस विषयका उनका अन्तिम लेख भारतीय विद्याके तृतीय भाग में प्रकाशित हुआ है। इन्होंने तत्त्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थभाष्यको अभिन्नकर्तृक सिद्ध करते समय पं० सुखलालजीकी उक्त तीनों युक्तियोंको ही कुछ शब्दोंके हेरफेरके साथ उपस्थित किया है। मात्र इन दोनों
1. देखो तत्त्वार्थभाष्यके अनमें पायी जानेवाली प्रशस्ति । 2. देखो उनके द्वारा लिखित तत्त्वार्थसूत्रकी प्रस्तावना। 3. पं० सुखलालजीके तत्त्वार्थसूत्रकी प्रस्तावना, पृष्ठ 21।
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