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सर्वार्थसिद्धि
इस उल्लेख में तत्त्वार्थसूत्रको स्पष्टतः गद्धपिच्छाचार्य के द्वारा प्रकाशित कहा गया है।
2. आचार्य विद्यानन्द भी महान् श्रुतधर आचार्य थे । इन्होंने अष्टसहस्री, विद्यानन्द महोदय, आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा और तत्त्वार्थश्लोकवातिक आदि अनेक शास्त्रोंका प्रणयन कर जैन श्रुतकी श्रीवृद्धि की है। इनका वास्तव्य काल ई० सन् 775 (शक सं0 697) से ई० सन् 840 (शक सं0762) तक माना जाता है। ये तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक मुद्रित पृष्ठ 6 में लिखते हैं
'एतेन गतपिच्छाचार्यपर्यन्तमुनिसूत्रेण व्यभिचारता निरस्ता।' इस द्वारा आचार्य विद्यानन्द यह सूचित करते हैं कि भगवान महावीरके शासन में जो सूत्रकार हुए हैं उनमें अन्तिम सूत्रकार गृद्धपिच्छ आचार्य थे।
स्पष्टतः यह उल्लेख तत्त्वार्थसूत्रकार आचार्य गृद्धपिच्छ तकके सभी सूत्रकारोंको सूचित करता है, फिर भी पं० सुखलालजी इस विषय में सन्देह करते हैं। उन्होंने यह सन्देह स्वलिखित तत्त्वार्थसूत्रकी प्रस्तावना पृष्ठ 106-107 में प्रकट किया है। उनका यह सन्देह विशेषतः तर्काश्रित है, इसलिए यहाँ हमें प्रथमत: इसपर इसी दृष्टिसे विचार करना है।
पण्डितजीका तर्क है कि पूर्वोक्त दूसरा कथन तत्त्वार्थाधिगम शास्त्रका मोक्षमार्गविषयक सूत्र सर्वज्ञ वीतरागप्रणीत है इस वस्तुको सिद्ध करनेवाली अनुमान चर्चा में आया है। इस अनुमान चर्चा में मोक्षमार्गविषयक सूत्र पक्ष है, सर्वज्ञ वीतराग प्रणीतत्व यह साध्य है और सूत्रत्व यह हेतु है। इस हेतु में व्यभिचार दोषका निरसन करते हुए विद्यानन्दने 'एतेन' इत्यादि कथन किया है। व्यभिचार दोष पक्ष से भिन्न स्थल में सम्भवित होता है। पक्ष तो मोक्षमार्गविषयक प्रस्तुत तत्त्वार्थसूत्र ही है इससे व्यभिचार का विषयभूत माना जानेवाला गद्धपिच्छाचार्यपर्यन्त मुनियोंका सूत्र यह विद्यानन्दकी दृष्टि में उमास्वातिके पक्षभूत मोक्षमार्गविषयक प्रथम सूत्रसे भिन्न ही होना चाहिए, यह बात न्यायविद्याके अभ्यासीको शायद ही समझानी पड़े ऐसी है।
पण्डितजी के इस तर्काश्रित वक्तव्यका सार इतना ही है कि आचार्य विद्यानन्दने यहाँपर जिस गुद्धपिच्छाचार्यपर्यन्त मुनिसूत्रका उल्लेख किया है । वह उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रसे भिन्न ही है।
जहाँ तक पण्डितजीका यह वक्तव्य है उसमें हमें अप्रामाणिकताका दोषारोप नहीं करना है, किन्तु पण्डितजी यदि उक्त अनुमान प्रसंगसे आचार्य विद्यानन्दके द्वारा उठाये गये अवान्तर प्रसंग पर दृष्टिपात करते तो हमारा विश्वास है कि वे गद्धपिच्छ आचार्यके सूत्रसे तथाकथित उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्रको भिन्न सिद्ध करनेका प्रयत्न नहीं करते।
आचार्य विद्यानन्द द्वारा उठाया गया वह अवान्तर प्रसंग है गणाधिप, प्रत्येकबुद्ध, श्रुतकेवली और अभिन्नदशपूर्वी के सूत्र वचनको स्वरचित मानकर व्यभिचारदोषका उद्धावन । स्पष्ट है कि इसमें इस अभिप्रायसे गृद्धपिच्छाचार्यका तत्त्वार्थसूत्र भी गभित है, क्योंकि यहाँपर वह स्वकर्तृकरूपसे सर्वज्ञ वीतरागप्रणीत सूत्रसे कथञ्चित् (कर्ता गृद्धपिच्छाचार्य हैं इस दृष्टिसे) भिन्न मान लिया गया है। प्रकृतमें इस विषयको इन शब्दों द्वारा स्पष्ट करना विशेष उपयुक्त होगा। प्रस्तुत अनुमान में प्रकृत सूत्र पक्ष है, सर्वज्ञ वीतराग प्रणीतत्व साध्य है, सूत्रत्व हेतु है, सर्वज्ञ वीतराग प्रणीत शेष सूत्र सपक्ष है और बृहस्पति आदिका सूत्र विपक्ष है। इस अनुमान द्वारा तत्त्वार्थसूत्रको सूत्रत्व हेतु द्वारा सर्वज्ञ वीतरागकर्तृक सिद्ध किया गया है। इससे सिद्ध है कि यहाँ आचार्य विद्यानन्द तत्त्वार्यसूत्रको गृद्धपिच्छाचार्यकर्तृक मानकर सूत्र सिद्ध नहीं कर रहे हैं । सूत्रत्वकी दृष्टिसे, यह गृद्धपिच्छाचार्य रचित है इस बातको, वे भूल जाते हैं। वे कहते हैं कि यह सर्वज्ञ वीतराग प्रणीत है, इसलिए सूत्र है।
फिर भी यदि कोई यह कहे कि यह तत्त्वार्थसूत्र सर्वज्ञ वीतरागप्रणीत न होकर गृपिच्छाचार्य रचित
1. देखो न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी द्वारा सम्पादित और वीरसेवामन्दिरसे प्रकाशित आप्तपरीक्षाकी प्रस्तावना पृष्ठ 50 ।
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