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प्रस्तावना
व्यामोहसे अपने को मुक्त रखा है। प्राचीन कालमें यह परिपाटी जितनी अधिक व्यापक थी, श्रुतधर आचार्योका उसके प्रति उतना ही अधिक आदर था ।
आज श्रुतधर आदि अनेक आचार्योंके जीवन परिचय और उनके कार्योंके तथ्यपूर्ण इतिहासको संकलित करने में जो कठिनाई आती है उसका कारण यही है। इसे हम कठिनाई शब्दसे इस अर्थ में पुकारते हैं, क्योंकि यह काल ऐतिहासिक तथ्योंके संकलनका होनेसे इस वातपर अधिक बल दिया जाता है कि कौन आचार्य किस कालमें हुए हैं, उनका गाहं स्थिक जीवन क्या था और उनके उल्लेखनीय कार्य कौन-कौनसे हैं आदि ।
प्रकृतमें हमें तस्वार्थसूत्र के रचयिता के सम्बन्ध में विचार करना है। तस्वार्थसूत्रका संकलन आगमिक दृष्टिसे जितना अधिक सुन्दर और आकर्षक हुआ है उसके रचयिता के विषय में उतना ही अधिक विवाद है। जैनसंघ की कालान्तर में हुई दोनों परम्पराओंके कारण इस विवादको और भी अधिक प्रोत्साहन मिला है। पहला विवाद तो रचयिता के नामादिके विषय में है और दूसरा विवाद उनके अस्तित्व कालके विषय में है। यहाँ हम सर्वप्रथम उन अभ्रान्त प्रमाणको उपस्थित करेंगे जिनसे तस्यार्थसूत्र के रचयिता के निर्णय करने में सहायता मिलती है और इसके बाद विवादके कारणभूत तथ्योंपर प्रकाश डालेंगे।
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तस्वार्थसूत्रकार आचार्य गृद्धपिन्छ - यह तो हम आगे चल कर देखेंगे कि आचार्य पूज्यपादने विविध विषयोंपर विशाल साहित्य लिखा है। फिर भी उन्होंने कहीं भी अपने नामका उल्लेख नहीं किया है। इतना ही नहीं, वे तस्वार्थसूत्रपर अपनी सर्वार्थसिद्धि टीका लिखते समय भी इसी मार्गका अनुसरण करते हैं। ये इसकी उत्थानिकामें यहाँ तक तो निर्देश करते हैं कि कोई भव्य किसी आश्रम में मुनियों की सभा में बैठे हुए आचार्यवर्धके समीप जाकर विनय सहित प्रश्न करता है और उसीके फलस्वरूप तस्वार्थ सूत्रकी रचना होती है। फिर भी वे उन आचार्य आदिके नामादिन के विषय में मौन रहते हैं। क्यों ? हमें तो इस उपाध्यान से यही विदित होता है कि आचार्य पूज्यपादनो परम्परा से तस्यार्थसूत्र के कर्ता आदि विषयक इत्थम्भूत जानकारी होते हुए भी स्वकर्तृत्व की भावनाका परिहार करनेके अभिप्रायसे वे नामादिक के उल्लेखके पचड़े में नहीं पड़े । भट्ट अकलंकदेवने भी इसी मार्गका अनुसरण किया है। वे भी तत्त्वार्थवार्तिकके प्रारम्भ में उसी उत्थानिकाको स्वीकार करते हैं जिसका उल्लेख सर्वार्थसिद्धि के प्रारम्भ में आचार्य पूज्यपादने किया है। इसलिए इन उल्लेखोंसे इस तथ्य पर पहुंचने पर भी कि इन आचार्योंको तस्वार्थसूत्र के कर्ता के नामादिककी कुछ-कुछ जानकारी अवश्य रही है, इससे इस बातका पता नहीं लगता कि आखिर वे जाचार्य कौन थे जिन्होंने भव्य जीवों के कल्याणार्थ यह महान् प्रयास किया है।
हम समझते हैं कि भारतीय परम्परा में मुख्यतः जैन परम्परा में नामादिकके उल्लेख न करनेकी यह परिपाटी विक्रम चौथी, पांचवीं शती तक बराबर चलती रही है। और कुछ आचार्योंने इसे इसके बाद भी अपनाया है। इसके बाद कई कारणोंसे इस नीति परिवर्तन होने लगता है और शास्त्रकार शास्त्र के प्रारम्भ में या अन्त में अपने नामादिका उल्लेख करने लगते हैं। इतना ही नहीं वे अन्य प्रकार से अपने पूर्ववर्ती शास्त्र कारोंका भी उल्लेख करने लगते हैं। अतएव हमें तत्त्वार्थसूत्र के रचयिताका ठीक तरहसे निर्णय करनेके लिए उत्तरकालवर्ती साहित्यका ही आलोडन करना होगा। अतः आइए पहले उत्तरकालवर्ती उन अभ्रान्त प्रमाणोंको देखें जो इस विषयपर प्रकाश डालते हैं
1. भुतघर आचायोंकी परम्परामें आचार्य वीरसेन महान् टीकाकार हो गये हैं। इन्होंने पण्डागमपर प्रसिद्ध धबला टीका शक संवत् 738 में पूरी की थी। उनकी यह टीका अनेक उल्लेखों और ऐतिहासिक तथ्योंको लिये हुए है। तत्त्वार्थसूत्र के अनेक सूत्रोंको उन्होंने इस टीकामें उद्धृत किया है। इतना ही नहीं जीवस्थान काल अनुयोगद्वार में तो तस्वार्थसूत्रकारके नामोल्लेखके साथ भी तत्वार्थसूत्रके एक सूत्रको वे उत करते हैं। वे कहते हैं
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'हरियासियतचत्यमुले वि वर्तनापरिणामक्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य छवि बच कालो पकविदो मुद्रित पृष्ठ 316
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