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प्रस्तावना
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द्वात्रिंशत्का-आचार्य पूज्यपादके पूर्व और स्वामी समन्तभद्र के बाद विक्रमकी पांचवीं छठवीं शताब्दी के मध्य में सिद्धसेन दिवाकर एक बहुत बड़े आचार्य हो गये हैं जिनका उल्लेख दिगम्बर आचार्योंने बड़े आदरके साथ किया है। इनके द्वारा रचित सन्म तितर्क ग्रन्थ प्रसिद्ध है । अनेक द्वात्रिंशत्काओंके रचयिता भी यही माने जाते हैं। आचार्य पूज्यपादने अध्याय 7 सूत्र 13 की सर्वार्थसिद्धि टीका में 'वियोजयति चासुभिः' यह पद उदधत किया है जो इनकी सिद्धद्वात्रिंशत्कासे लिया गया जान पड़ता है।
इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि में कुछ ऐसी गाथाएं, पद्य और वाक्य उद्धृत हैं जिनमें से कुछके स्रोतका हम अभी तक ठीक तरहसे निर्णय नहीं कर सके हैं और कुछ ऐसे हैं जो सर्वार्थसिद्धिके बादमें संकलित हुए या रचे गये ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं। यहाँ हमने उन्हीं ग्रन्थोंका परिचय दिया है जो निश्चयत: आचार्य पूज्यपाद के सामने रहे हैं। मंगलाचरण- सर्वार्थसिद्धि के प्रारम्भ में यह मंगल श्लोक आता है
'मोक्षमार्गस्य नेतारं भेतारं कर्मभूभृताम् ।
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ॥' यहाँ विचार इस बातका करना है कि यह मंगल श्लोक तत्त्वार्थसूत्रका अंग है या सर्वार्थसिद्धिता । प्रायः सब विद्वानोंका मत इसे तत्त्वार्थसूत्रका अंग माननेके पक्ष में है। वे इसके समर्थन में इन हेतुओंको उपस्थित करते हैं
एक तो तत्त्वार्थसूत्रकी हस्तलिखित अधिकतर जो प्राचीन प्रतियां उपलब्ध होती हैं उनके प्रारम्भ में यह मंगल श्लोक उपलब्ध होता है और दूसरे आचार्य विद्यानन्दने अपनी आप्तपरीक्षामें इसे सूत्रकारका कहकर इसका उल्लेख किया है। यथा
कि पुनस्तत्परमेष्ठिनो गुणस्तोत्रं शास्त्राची सूत्रकाराःप्राइरिति निगद्यते।' आचार्य विद्यानन्द इतना ही कहकर नहीं रह गये। वे आप्तपरीक्षा का उपसंहार करते हुए पुनः कहते हैं
'श्रीमत्तस्वार्थशास्त्रातसलिलनिषेरितरत्नोद्भवस्य, प्रोत्थानारम्भकाले सकलमलभिवे शास्त्रकारः कृतं यत् । स्तोत्रं तीर्थोपमानं प्रथितएथपथं स्वामिमीमांसितं तत,
विद्यानन्वैः स्वशक्त्या कथमपि कथितं सत्यवाक्यार्थसिद्धये ॥ 123॥ प्रकृष्ट रत्नोंके उद्भवके स्थानभूत श्रीमत्तत्त्वार्थशास्त्ररूपी अद्भुत समुद्रकी रचनाके आरम्भ काल में महान मोक्षपथको प्रसिद्ध करनेवाले और तीर्थोपमस्वरूप जिस स्तोत्रको शास्त्रकारोंने समस्त कर्म मलके भेदन करनेके अभिप्रायसे रचा है और जिसकी स्वामीने मीमांसा की है उसी स्तोत्रका सत्य वाक्यार्थकी सिद्धिके लिए विद्यानन्दने अपनी शक्ति के अनुसार किसी प्रकार निरूपण किया है। इसी बातको उन्होंने इन शब्दों में पुनः दुहराया है
'इति तत्वार्थशास्त्रावो मुनीन्द्रस्तोत्रगोचरा ।
प्रणीताप्तपरीक्षयं विवादविनिवृत्तये ॥ 124॥ इस प्रकार तत्त्वार्थशास्त्र के प्रारम्भमें मुनीन्द्र के स्तोत्रकी विषयभूत यह आप्तपरीक्षा विवादको दूर करने के लिए रची गयी है।
__ आप्तपरीक्षाके ये उल्लेख असंदिग्ध हैं। इनसे विदित होता है कि आचार्य विद्यानन्द उक्त मंगल श्लोक को तत्त्वार्थसूत्रके कर्ताका मानते हैं ।
1. देखो भारतीय विद्या भाग 3, पृष्ठ 11। 2. देखो जिनसेन का महापुराण । 3. देखो पुरातन जैन वाक्यसूची, प्रस्तावना पृ० 132 ।
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