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प्रस्तावना
इन दोनों प्रत्योंमें भोगोपभोगवत या उपभोगपरिभोगवतके निरूपण में जो अर्थ और शब्दसाम्य दृष्टिगोचर होता है वह तो और भी विलक्षण है। दोनोंमें भोग और उपभोगके प्रकार दिखलाकर जसघात बहुत और अनिष्ट के त्यागका उपदेश दिया गया है। मात्र रत्नकरण्डक में इनके सिवा अनुपसेव्य के त्यागका निर्देश विशेषरूपसे किया गया है। रत्नकरण्डक मे उल्लेख इस प्रकार है-
च
'सतिपरिहरणार्थ क्षीरं पिशितं प्रमादपरिहृतये । म वर्जनीयं जिनचरणौ शरणमुपयातं ॥ 3,38 ॥ 'अल्पफल बहुविधतामूलकमाचि शृङ्गवेराणि । नवनीत निम्बकुसुमं तकमित्येवमवयम् ॥ 3,39 ।। पदनिष्टं तद्वतयेद्यच्चानुपसेश्यमेतदपि जह्यात् ॥ 3,401 इसी विषयको सर्वार्थसिद्धि में देखिए
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'ममम च सदा परिहर्तभ्यं त्रसघातान्निवृतचेतसा। केतक्यर्जुनपुष्पादीनि भृङ्गवेरमूलकादीनि बहुजन्यस्यनन्तकायव्यपदेशार्हाणि परिहर्तव्यानि बहुपातात्यफलश्वात् । यानवाहनाभरणाविष्येताववे वेष्ट मतोऽन्यदनिष्टमित्य निष्टान्निवर्तनं कर्तव्यम् 17, 22
इतने विलक्षण साम्यके होते हुए भी इन दोनों ग्रन्थों में कुछ विशेषता है। प्रथम विशेषता तो यह है कि रत्नकरण्डकमै प्रोषध' शब्दका अर्थ 'सत्कृद्मुक्ति' किया है और सर्वार्थसिद्धि में 'पर्व' तथा दूसरी विशेषता यह है कि रत्नकरण्डकमें आठ मूलगुणोंका स्वतन्त्र रूप से उल्लेख किया है जब कि सर्वसिद्धि में इनकी यत्किचित् भी चर्चा नहीं की है। इसलिए शंका होती है कि यदि सर्वार्थसिद्धि रत्नकरण्डक के बादकी रचना मानी जाय तो उसमें वह अन्तर नहीं दिखाई देना चाहिए। 'प्रोषध' शब्द के अर्थ को हम छोड़ सकते है, क्योंकि उसे पर्व पर्यायके अर्थ में स्वीकार करनेमें आपत्ति नहीं है तब भी आठ मूलगुणोंके निर्देश और अनिर्वेशका प्रश्न बहुत ही महत्व रखता है। पाठक जिसने भी प्राचीनकालकी ओर जाकर देखेंगे कि पूर्व काल में आठ मूलगुणों का उल्लेख श्रावकके कर्तव्यों में अलगसे नहीं किया जाता था । किन्तु उनके स्थान पर सामायिक आदि षट्कर्म ही प्रचलित थे। सर्वप्रथम यह उल्लेख रत्नकरण्डक में ही दिखलाई देता है।
(स्व०) डॉ० हीरालालजी रत्नकरण्डकको श्री स्वामी समन्तभद्रकी कृति मानने में सन्देह करते हैं। उनका यह विचार बननेका मुख्य कारण यह है कि वादिराजसूरिते अपने पार्श्वनाथचरितमें देवागम के कर्ता स्वामी समन्तभद्रका उल्लेख करनेके बाद पहले 'देव' पद द्वारा जैनेन्द्र व्याकरणके कर्ता आचार्य पूज्य - पादका उल्लेख किया है और इसके बाद रत्नकरण्डक के कर्ताका स्मरण करते हुए उन्हें 'योगीन्द्र' नाम से सम्बो धित किया है। डॉ० साहब का खयाल है कि ये 'योगीन्द्र' स्वामी समन्तभद्र से भिन्न होने चाहिए जो कि आचार्य पूज्यपाद के बाद के प्रतीत होते हैं। यही कारण है कि वादिराजसूरिने अपने पार्श्वनाथचरितमें आचार्य पूज्यपाद के बाद आचार्य योगीन्द्रका स्मरण किया है और उन्हें रत्नकरण्डकका निर्माता कहा है। इसकी पुष्टि में उन्होंने और भी कई प्रमाण दिये हैं, पर उनमें मुख्य प्रमाण यही है ।
स्व० श्री पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार ने माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला से प्रकाशित होनेवाले सटीक रत्नकरण्यावकाचारकी प्रस्तावना में रत्नकरण्डककी अन्तःपरीक्षा करके यह सम्भावना प्रकट की है कि जिस रूप में इस समय वह उपलब्ध होता है वह उसका मूलरूप नहीं है । लिपिकारों और टिप्पणकारोंकी असावधानी यश कई प्रक्षिप्त श्लोक मूलके अंग बन गये हैं । हमारा अनुमान है कि अष्ट मूलगुणोंका प्रतिपादक यह श्लोक भी इसी प्रकार मूलका अंग बना है। यद्यपि मुक्तार साहब आठ मूलगुणोंके प्रतिपादक श्लोकको प्रक्षिप्त नहीं मानते। उन्होंने इसका कोई खास कारण तो नहीं दिया। केवल उपसंहार करते हुए इतना ही
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1. देखो माणिकचन्द्र ग्रन्थमालासे प्रकाशित पार्श्वनाथ चरित, सर्ग 1, श्लोक 17, 18 और 191 2. देखो, प्रस्तावना पृष्ठ 15 से पृष्ठ 53 तक ।
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