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सर्वार्थसिद्धि
किन्तु इस मंगल श्लोकके रचयिता तत्त्वार्थसूत्रकार आचार्य गद्धपिच्छ नहीं हैं इसके समर्थन में ये युक्तियाँ उपस्थित की जाती हैं
1. यदि इस मंगल श्लोकके रचयिता तत्त्वार्थसूत्रके निर्माता स्वयं गद्धपृच्छ आचार्य होते और तत्त्वार्थसूत्रके साथ यह मंगल श्लोक आचार्य पूज्यपादको उपलब्ध हुआ होता तो वे इसपर अपनी व्याख्या अवश्य लिखते । उसे बिना व्याख्याके वे सर्वार्थसिद्धिका अंग न बनाते ।
2. आचार्य पूज्यपाद सर्वार्थ सिद्धिकी प्रारम्भिक उत्थानि का द्वारा यह स्पष्टतः सूचित करते हैं कि किसी भव्यके अनुरोधपर आचार्य गृद्धपिच्छ के मुख से सर्वप्रथम 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' यह सूत्र प्रकट हुआ। इससे विदित होता है कि उन्हें मंगलाचरण करनेका प्रसंग ही उपस्थित नहीं हुआ।
3. तत्त्वार्थवातिककार भट्ट अकलंकदेव भी इस मंगल श्लोकको तत्त्वार्थसूत्रका अंग नहीं मानते। अन्यथा वे इसकी व्याख्या अवश्य करते और उस उत्थानिकाको स्वीकार न करते जिसका निर्देश आचार्य पूज्यपादने सर्वार्थसिद्धि के प्रारम्भ में किया है। तत्त्वार्थसूत्र के व्याख्याकारकी दृष्टि से आचार्य विद्यानन्दकी स्थिति भट्ट अकलंकदेवसे भिन्न नहीं है। उन्होंने भी तत्त्वार्थश्लोकवातिक में इस मंगल श्लोककी व्याख्या नहीं की है। इतना ही नहीं इन दोनों आचार्योंने अपने भाष्यग्रन्थों के प्रारम्भमें उसका संकलन भी नहीं किया है।
ये दो मत हैं जो किसी एक निर्णयपर पहुंचने में सहायता नहीं करते। फिर भी हम प्रथम मतके आधारोंको अधिक तथ्यपूर्ण मानते हैं क्योंकि आजसे लगभग एक हजार वर्षके पूर्व भी जब मंगल-श्लोक तत्त्वार्थसूत्रकारका माना जाता रहा है तो उस पर सन्देह करना अप्रासंगिक प्रतीत होता है ।
3. तत्त्वार्थसूत्रकार पुरानी परम्परा-शास्त्रकी प्रमाणता और अप्रमाणताका प्रश्न बहुत ही महत्त्वपूर्ण विषय है। प्राचीनकालमें सभी शास्त्रकार शास्त्रके प्रारम्भमें या अन्त में अपने नाम, कुल, जाति, वास्तव्यस्थान आदिका उल्लेख नहीं करते थे, क्योंकि वे उस शास्त्रका अपने को प्रणेता नहीं मानते थे। उनका मुख्य कार्य परम्परासे प्राप्त भगवान्की द्वादशांग वाणीको संक्षिप्त, विस्तृत या भाषान्तरित कर संकलित कर देना मात्र होता था । वे यह अच्छी तरहसे जानते थे कि किसी शास्त्रके साथ अपना नाम आदि देनेसे उसकी सर्वग्राह्यता या प्रामाणिकता नहीं बढ़ती। अधिकतर शास्त्रों में स्थल-स्थलपर जिनेन्द्रदेवने ऐसा कहा है।, यह जिनदेवका उपदेश है, सर्वज्ञदेवने जिस प्रकार कहा है उस प्रकार हम कहते हैं, इन वचनोंके उल्लेखके साथ उनका प्रतिपाद्य विषय चचित होता है। यह क्यों ? इसलिए कि जिससे यह बोध हो कि यह किसी व्यक्तिविशेषका अभिप्राय न होकर सर्वज्ञदेवकी वाणी या उसका सार है । वस्तुतः किसी शास्त्र के अर्थोपदेष्टा छद्मस्थ न होकर वीतराग सर्वज्ञ होते हैं। छद्मस्थ गणधर तो उनके अर्थोपदेशको सुनकर उनकी वाणीका ग्रन्थरूप में संकलनमात्र करते हैं । यही संकलन परम्परासे आकर नाना आचार्यों के ज्ञानका विषय होकर अनेक प्रकीर्णक शास्त्रोंको जन्म देता है। पूर्वकालीन आचार्य इस तथ्यको उत्तम रीतिसे समझते थे और इसलिए वे नाम रूपके व्यामोहसे मुक्त रहकर द्वादशांगवाणी के संकलन में लगे रहते थे। आचार्य पुष्पदन्त, आचार्य भूतबलि, आचार्य गुणधर, आचार्य यतिवृषभ, आचार्य कुन्दकुन्द, स्वामी समन्तभद्र, आचार्य सिद्धसेन दिवाकर और आचार्य पूज्यपाद प्रभृति ऐसे अनेक आचार्य हुए हैं जिन्होंने इस मार्गका अनुसरण किया है और भगवान् तीर्थकरकी वाणीका संकलन कर उसे लोककल्याणके हेतु अर्पित किया है। इतना ही क्यों, आचार्य गृद्धपृच्छ भी उन्हीं में एक हैं जिन्होंने तत्त्वार्थसूत्र जैसे ग्रन्थरत्नको अवशिष्ट समग्र श्रुतके आधारसे संकलन कर नाम प्रख्यापन के
1. 'भणियो खलु सम्वदरसीहि समयप्राभत, गाथा 701 2. 'एसो जिणोवदेसो' समयप्राभूत, गाथा 1501 3. 'सद्दविकारो हूओ भासासूत्तेसु जं जिणे कहियं । सो तह कहियं णायंसीसेण य भद्दबाहुस्स ॥' बोधपाहुड़, गाथा 611 4. 'तित्थयरभासियत्थं गणहरदेवेहि गुंथियं सम्मं ।' भावपाहुड, गाथा 92। 5. देखो सर्वा०, अ01, सू० 201
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