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सर्वार्थसिद्धि
कहा है कि 'इसके न रहनेसे अथवा यों कहिए कि श्रावकाचार विषयक ग्रन्थमें श्रावकोंके मूलगुणोंका उल्लेखन न होनेसे, ग्रन्थ में एक प्रकारकी भारी त्रुटि रह जाती जिसकी स्वामी समन्तभद्र जैसे अनुभवी ग्रन्थकारोंसे कभी आशा नहीं की जा सकती थी।
. हम यह तो मानते हैं कि केवल वादिराजसूरिके उल्लेखके आधारसे यह तो नहीं माना जा सकता कि रत्नकरण्डक स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं है, क्योंकि उन्होंने आचार्योंका उल्लेख सर्वथा कालक्रमके आधारसे नहीं किया है। यथा-दे अध्याय 1 श्लोक 20 में अकलंकका उल्लेख करने के बाद 22वें श्लोकमें सन्मतितके कर्ताका स्मरण करते हैं। यह भी सम्भव है कि किसी लिपिकारकी असावधानीवश रत्नकरण्डक का उल्लेख करनेवाला पार्श्वनाथचरितका त्यागी स एव योगीन्द्रः' श्लोक 'अचिन्त्यमहिमा देवः' इस श्लोकके बाद लिपिबद्ध हो गया हो। मुद्रित प्रतिमें ये श्लोक इस रूपमें पाये जाते हैं।
स्वामिनश्चरितं तस्य कस्य नो विस्मयावहम् । देवागमेन सर्वतो येनाद्यापि प्रबर्यते ॥ 1, 17॥ अचिन्त्यमहिमा देवः सोऽभिवन्द्यो हितैषिणा। शब्दाश्च येन सियन्ति साधुत्वं प्रतिलम्भिताः।। 1, 18॥ त्यागी स एव योगीन्द्रो येनाक्षय्यसुखावहः ।
अथिने भव्यसाय विष्टो रत्नकरण्डकः ॥ 1, 19॥ किन्तु इनमें से 19 संख्यांकवाले श्लोकको 17 संख्यांकवाले श्लोकके बाद पढ़ने पर 'त्यागी स एव योगीन्द्रों इस पद द्वारा स्वामी समन्तभद्रका ही बोध होता है और सम्भव है कि वादिराजसूरिने रत्नकरण्डक का कर्तृत्व प्रकट करनेके अभिप्रायसे पुनः यह श्लोक कहा हो। किन्तु दूसरे प्रमाणोंके प्रकाशमें इस सम्भावना द्वारा रत्नकरण्डक को स्वामी समन्तभद्रकर्तृक मान लेनेपर भी उसमें आठ मूलगुणोंका उल्लेख अवश्य ही विचारणीय हो जाता है। इस विषय में हमारा तो खयाल है कि जिस काल में श्रावकके पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक ये तीन भेद किए गये और इस आधारसे श्रावकाचार के प्रतिपादन करनेका प्रारम्भ हुआ उसी कालसे आठ मूलगुणोंका वर्गीकरण हो कर उन्हें श्रावकाचारों में स्थान मिला है। रत्नकरण्डकमें कुछ ऐसे बीज हैं जिनसे उसका संकलन दूसरे श्रावकाचारों में हुए विकास क्रमके बहुत पहलेका माना जा सकता है। अतएव सम्भव है कि रत्नकरण्डक में अठ मूलगुणोंका उल्लेख प्रक्षिप्त हो। रत्नकरण्डकमें जिस स्थानपर यह आठ मूलगुणोंका प्रतिपादक श्लोक संकलित है उसे देखते हुए तो यह सम्भावना और भी अधिक बढ़ जाती है ! इसके पहले स्वामी समन्तभद्र अतीचारोंके साथ पांच अणुव्रतोंका कथन पर आये हैं और आगे वे सात शीलव्रतोंका अतीचारोंके साथ कथन करने वाले हैं। इनके बीच में यह श्लोक आया है जो अप्रासंगिक है।
युक्त्यनुशासन-स्वामी समन्तभद्रकी रत्नकरण्डकके समान अन्यतम अमर कृति उनका युक्त्यनुशासन है। इसमें वीर जिनकी स्तुति करते हुए युक्तिपूर्वक उनके शासनकी स्थापना की गयी है । इसके एक स्थलपर वे कहते हैं कि जो शीर्षोपहार आदिके द्वारा देवकी आराधना कर सुख चाहते हैं और सिद्धि मानते हैं उनके आप गुरु नहीं हो। श्लोक इस प्रकार है
'शीर्षोपहारादिभिरात्मदुःखदेवान् किलाराध्य सुखाभिगद्धाः।
सियन्ति बोषापचयानपेक्षा युक्तं च तेषां त्वमषिनं येषाम् ॥' अब इसके प्रकाश में सर्वार्थ सिद्धि के इस स्थलको पढ़िएतेन तीर्थाभिषेकदीक्षाशीर्षापहारदेवताराधनादयो निवतिता भवन्ति । अ० 9, सू० 2 की टीका।
इस तुलनासे विदित होता है कि आचार्य पूज्यपादके समक्ष युक्त्यनुशासनका उक्त वचन उपस्थित था।
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1. देखो प्रस्तावना पृ० 32 ।
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