________________
प्रस्तावना
चार सूत्र-- यह तो स्पष्ट है कि तत्त्वार्थसूत्रके दो सूत्रपाठ हो जानेपर भी अधिकतर सूत्र ऐसे हैं जो दोनों सम्प्रदायोंको मान्य हैं और उनमें भी कुछ ऐसे सूत्र अपने मुलरूपमें रहे आये हैं जिनसे रचयिताकी स्थिति आदिपर प्रकाश पड़ता है। यहाँ हम इस विचारणा में ऐसे सूत्रोंमेंसे मुख्य चार सूत्रोंको उपस्थित करते हैंप्रथम तीर्थंकर प्रकृतिके बन्धके कारणों का प्रतिपादक सूत्र, दूसरा बाईस परीषहोंका प्रतिपादक सूत्र, तीसरा केवली जिनके ग्यारह परीषहोंके सद्भावका प्रतिपादक सूत्र और चौथा एक जीवके एक साथ कितने परीषह होते हैं इसका प्रतिपादक सूत्र ।
1. तीर्थकर प्रकृतिके बन्धके कितने कारण हैं इसका उल्लेख दोनों परम्पराओंके मूल आगम करते हैं। दिगम्बर परम्पराके बंधसामित्तविचयमें वे ही सोलह कारण उल्लिखित हैं जो लगभग तत्त्वार्थसूत्र में उसी रूपमें स्वीकार किये गये हैं। तुलनाके लिए देखिए --
दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नता शीलवतेष्वनतिचारोऽभीषणज्ञानोपयोगसंवेगो शक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाषियावृस्यकरणमहवाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्मार्गप्रभावनाप्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य ।
तस्वार्थसूत्र 6,241 बंसणविसुज्झवाए विणयसंपण्णवाए सोलम्वदेसु णिर विचारदाए आवासएसु अपरिहोणवाए सणलवशिषझणवाए लतिसंवेगसंपण्णदाए जषा थामे तथा तवे साहूण पासुअपरिचागदाए साहूण समाहिसंधारणाए साहणं वेज्जावच्चजोगजसदाए अरहंतमत्तीए बहुसुबभत्तीए पवयणभत्तीए पवयणवच्छलवाए पवयणप्पभावणदाए अभिक्खणं अभिक्खणं णाणीवजोगजुत्तदाए इच्चेदेहि सोलसेहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामगोवं कम्म बंधति ।
-बंधसामित्सविच 75041। किन्तु श्वेताम्बर परम्परा 16 के स्थानों में 20 कारण स्वीकार करती है। वहाँ ज्ञातृधर्मकथा नामक अंगके आठवें अध्याय में इन कारणोंका निर्देश इन शब्दों में किया है ---
'अरहंत-सिद्धि-पवयण गुरु-थेर बहुस्सुए तवस्सीसुं। बच्छलया य तेसि अभिक्खं जाणोवओगे य॥1॥ बसविणए आवस्सए य सोलम्सए निरइयारं। खणलव तवच्चियाए वेयावच्चे समाही य॥2॥ अपुग्वणाणगहणं सुयभत्ती पवयणे पभावणया ।
ए एहि कारणेहि तित्थयरत्तं लहइ जीवो ॥3॥' यहाँ तत्त्वार्थसूत्रकी दो बातें ध्यान देने योग्य हैं -प्रथम बात तो 16 संख्याका निर्देश और दूसरी बात शब्दसाम्य । इस विषय में तत्त्वार्थसूत्रका उक्त सूत्र दिगम्बर परम्पराके जितने अधिक नजदीक है उतना श्वेताम्बर परम्पराके नजदीक नहीं है।
2. दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराएँ 22 परीषहोंको स्वीकार करती हैं। तत्त्वार्थसूत्र में इनका प्रतिपादन करनेवाला जो सूत्र है। उसमें एक परीषहका नाम 'नाग्न्य' है । देखना यह है कि यहाँ तत्त्वार्थसूत्रकारने नाग्य शब्दको ही क्यों स्वीकार किया है। क्या इस शब्दका स्वीकार श्वेताम्बर परम्पराके अनुसार आगम सम्मत हो सकता है। श्वेताम्बर परम्पराके आगम में 'नाग्न्य' परीपहके स्थान में सर्वत्र 'अचेल' परीषहका उल्लेख मिलता है। जो उस सम्प्रदायके अनुरूप है; क्योंकि अचेल शब्दमें 'नन्' समास होनेसे उस सम्प्रदाय में इस शब्दके वस्त्रका अभाव और अल्प वस्त्र' ये दोनों ही अर्थ फलित हो जाते हैं। परन्तु इस प्रकार 'नाग्म्य' शब्दसे इन दोनों अर्थोंको फलित नहीं किया जा सकता है। नग्न यह स्वतन्त्र शब्द है और इस शब्दका 'वस्त्रके आवरणसे रहित' एकमात्र यही अर्थ होता है। स्पष्ट है कि यह 22 परीषहोंका प्रति
1. देखो, अ09 सू०9। 2. समवायांग समवाय 22 व भगवती सूत्र 8, 8 ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org