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सर्वार्थसिद्धि
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लेखक वे स्वयं हैं यह भी प्रसिद्धि है। इसलिए यह शंका होती है कि सर्वार्थसिद्धि में उन्होंने स्वनिर्मित जैनेन्द्र के सूत्रोंका ही उल्लेख किया होगा । सर्वार्थसिद्धि के सम्पादक के समय यह प्रश्न हमारे सामने था और इस दृष्टि से हमने सर्वार्थसिद्धिको देखा भी किन्तु इसमें व्याकरणके जो सूत्रोल्लेख उपलब्ध होते हैं उनको देखते हुए हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि इस विषय में उनका ऐसा कोई आग्रह नहीं था कि केवल स्वनिर्मित जैनेन्द्रके ही सूत्र उद्धृत किये जायें। यों तो सर्वार्थसिद्धि में सूत्रोल्लेखोंका बहुत ही कम प्रसंग आया है, पर दो तीन स्थलोंपर जिस रूप में वे उल्लिखित किये गये हैं उनके स्वरूपको देखनेसे विदित होता है कि इस काम में पाणिनीय और जैनेन्द्र दोनों व्याकरणोंका उपयोग हुआ है। यथा
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सर्वप्रथम हम अध्याय 4 सूत्र 19 की सर्वार्थसिद्धि टीका में दो सूत्रोंका उल्लेख देखते हैं । उनमें से प्रथम है 'तदस्मिन्नस्तीति ।' और दूसरा है 'तस्य निवासः । ' इनमें से प्रथम सूत्र पाणिनीय व्याकरण में 'तस्मिन्नस्तीति देश तम्नामि 4 267। इस रूप में और जैनेन्द्रव्याकरणमें 'तवस्मिन्नस्तीति देश: खी । 4, 1, 14 ।' इस रूप में उपलब्ध होता है, इसलिए इस परसे यह कहना कठिन है कि यहाँपर आचार्य पूज्यपादने पाणिनीय के सूत्रका आश्रय लिया है या जैनेन्द्र के सूत्रका । दूसरा सूत्र पाणिनीय व्याकरण में 'तस्य निवासः । 4, 2,69 ।' इसी रूपमें और जैनेन्द्रव्याकरण में 'तस्य निवासादूर भयो । 3, 2, 19 ।' इस रूप में उपलब्ध होता है । स्पष्ट है कि यहाँ आचार्य पूज्यपादने पाणिनीय व्याकरणके सूत्रका उल्लेख किया है ।
अध्याय 5 सूत्र 1 की सर्वार्थसिद्धि टीका में 'विशेषणं विशेष्येणेति' सूत्र उल्लिखित है । जैनेन्द्रव्याकरण ने यह इसी रूप में क्रमांक 1, 3, 52 पर अंकित है और इसके स्थानपर पाणिनीय व्याकरणका सूत्र है विशेषणं विशेष्येण बहुलम् स्पष्ट है कि यहाँपर आचार्य पूज्यपादने स्वनिर्मित व्याकरणके सूत्रका ही उल्लेख किया है।
यह तो सूत्र चर्चा हुई। अब एक अन्य प्रमाणको देखिए- अध्याय 5 सूत्र 4 की टीका में आचार्य पूज्यपादने 'मेवेत्यः' यह पद उल्लिखित किया है किन्तु जैनेन्द्रव्याकरण में नित्य शब्दको सिद्ध करनेवाला न तो कोई सूत्र है और न ही 'त्य' प्रत्ययका निर्देश है। वहाँ 'त्य' प्रत्ययके स्थान में 'य' प्रत्यय है । इससे विदित होता है कि यह वाक्य आचार्य पूज्यपादने कात्यायन वार्तिक 'त्यबनेध्रुव इति वक्तव्यम् । 4, 2, 104' को ध्यान में रखकर लिखा है। आचार्य अभयनन्दिने अपनी वृत्तिमें अवश्य ही वम् इति वक्तव्यम् ।' यह वार्तिक बनाया है। किन्तु वह बादकी रचना है। फिरभी उक्त पद विवादास्पद अवश्य है ।
इन तथ्योंके प्रकाशमें यह स्पष्ट हो जाता है कि आचार्यं पूज्यपादने अपनी सर्वार्थसिद्धि टीका में जैनेन्द्रव्याकरण के समान पाणिनीय व्याकरणका भी उपयोग किया है और यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनेन्द्रव्याकरणकी रचना होने के अनन्तर ही उन्होंने सर्वार्थसिद्धि टीका लिखी थी । अध्याय 10 सूत्र 4 की सर्वार्थfafa टीका में आचार्य पूज्यपादने पंचमी विभक्ति के लिए 'का' संज्ञाका प्रयोग किया है। आचार्य पूज्यपादने अपने जैनेन्द्रव्याकरण में विभक्ति' शब्द के व्यंजन अक्षरोंमें 'मा' और स्वरमें 'व्' जोड़कर कमसे विभक्तियोंकी बा, इपू, भा, अप्, का, ता, ईपू ये सात संज्ञाएँ निश्चित की हैं। इस हिसाबले का यह पंचमी विभक्तिका संकेत है। यह भी एक ऐसा प्रमाण है जो इस बातको सूचित करता है कि सर्वार्थसिद्धि लिखे जानेके पहले जैनेन्द्रव्याकरणकी रचना हो गयी थी ।
कात्यायनबालिक पाणिनीयके व्याकरण सूत्रोंपर कात्यायन महर्षिने वार्तिक लिखे हैं। अध्याय 7 सूत्र 16 की सर्वार्थसिद्धि टीका में आचार्य पूज्यपादने शास्त्र कहकर उनके 'अश्ववृषभयो मैथुनेच्छायाम् । इस वार्तिकको उद्धृत किया किया है । यह पाणिनि के 7, 1, 51 पर कात्यायनका पहला वार्तिक है ।
पातंजल महाभाष्य - वैदिक परम्परा में पतंजलि ऋषि एक महान् विद्वान् हो गये हैं। इस समय पाणिनीय व्याकरणपर जो पातंजल महाभाष्य उपलब्ध होता है वह इन्हीं की अमर कृति है योगदर्शन के लेखक भी यही हैं । यह इससे स्पष्ट है
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