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प्रस्तावना
क्या षट्खंडागमसूत्र भी चूर्णिसूत्र हैं ? यद्यपि अन्य किसी भी आचार्यने पखंडागमके सूत्रोंका चूर्णिसूत्रोंके रूपसे उल्लेख किया हो, यह हमारे देखनेमे नहीं आया, तथापि उसकी धवला टीकामें उसके रचयिता स्वयं आ० वीरसेनने एक स्थल पर षट्खंडागमसूत्रका चूर्णिसूत्ररूपसे उल्लेख किया है। षट्खंडागमके चौथे वेदनाखंडमें कुछ वीजपदरूप गाथासूत्र आये हैं, और उन गाथासूत्रोंके व्याख्यात्मक अनेक सूत्रोंकी रचना प्रा० भूतबलिने की है। उन्हीं गाथासूत्रोंकी टीका करते हुए धवलाकार लिखते हैं
तिय' इदि वुत्ते ओहिणाणावरणीय--प्रोहिदसणावरणीय-लाहंतराइयाणं अणुभागं पेक्खिदूण अण्णोरणेण समाणाण गहणं । कथं समाणत्तं णव्वदे ? उवरि भएणमाणचुरिणसुत्तादो।
(धवला० ताम्र० पृ० ४७३।२) __ अर्थात् गाथा-पठित 'तिय' पदसे अवधिज्ञानावरण, अवधिदर्शनावरण और लाभान्तरायके अनुभागकी समानताका ज्ञान कैसे होता है ? इस प्रश्न के उत्तरमें कहा गया है कि आगे कहे जानेवाले चूर्णिसूत्रसे उक्त समानताका ज्ञान होता है।
जिस प्रकार कसायपाहुडके बीजपदरूप गाथासूत्रों पर आ० यतिवृषभने प्रस्तुत चूर्णिसूत्र रचे हैं, ज्ञात होता है उसी प्रकारसे महाकम्मपयडिपाहुडके भी बीजपदरूप गाथासूत्र रहे हैं
और उनका अधिकांश भाग धरसेनाचार्यसे भूतबलिको प्राप्त हुआ था और उनका ही आश्रय लेकर षटखंडागमसूत्रोंकी रचना की गई है। यही कारण है कि वीरसेनाचार्यने उन्हें 'चूर्णिसूत्र' रूपसे उल्लेख किया है।
ये बीजपदरूप गाथासूत्र किस प्रकारके रहे हैं,यहां उनका एक उद्धरण दिया जाता है
सादं जसुच्च-दे कं ते-आ-वे-मणु-अणंतगुणहीणा ।
मिच्छ के-यं सादं चीरिय-अणंताणु-संजलणा ॥
इस गाथामें विवक्षित कर्म-प्रकृतियोंका एक-एक या दो-दो अक्षररूप पदोंके द्वारा संकेत किया गया है । यथा-'दे' से देवगति, 'क' से कार्मणशरीर और 'ते' से तैजसशरीरका । ऐसी तीन गाथाओंके आधार पर आ० भूतबलिने चौंसठ सूत्रोंकी रचना की है।
इस प्रकारके बीजपदात्मक कुछ गाथासूत्र केवल वेदना और वर्गणाखंडमें ही पाये जाते हैं।
गुणधर और यतिवृषभका समय ___ जयधवलाके सम्पादकोंने उसके प्रथम भागकी प्रस्तावनामें आ० गुणधर और यतिवृषभके समयका निर्णय करनेके लिए बहुत कुछ विचार किया है, जिसे यहां दुहरानेकी आवश्यकता नहीं है । उस सबको ध्यान में रखते हुए मेरे विचारसे-जैसा कि प्रस्तावनाके प्रारम्भमें बतलाया गया है-आ० गुणधर धरसेनाचार्यसे बहुत पहले उस समय हुए हैं, जव कि महाकम्मपयडिपाहुडका पठन-पाठन अविच्छिन्न धारा-प्रवाहसे चल रहा था । और इस कारणसे उनका समय वी०नि० ६८३ से पीछे न होकर लगभग दो सौ वर्ष पूर्व होना चाहिए।
गुणधराचार्यके समयका ठीक-ठीक निश्चय करनेके लिए यद्यपि हमारे पास अभी समुचित साधन नहीं हैं, तथापि आ० अर्हद्वलि-द्वारा स्थापित संघोंमेंसे एकका नाम 'गुणधर