Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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प्राचीन स्थितिका अन्वेषण
५३ स्थानमें एक सीधी-सादी विधि बतलाते हैं। चावल, जौ या दूधकी आहुतिसे किये जानेवाले बाह्य यज्ञकी अपेक्षा आन्तर यज्ञ पर विशेष जोर दिया गया है। उनमें सकाम कर्मके प्रति और कर्मफलके प्रति श्रद्धाका भाव दिखाई नहीं देता; क्योंकि कर्ममार्गसे मिलनेवाला स्वर्ग स्थायी नहीं होता अतः कर्मकाण्डको आत्यन्तिक सुखका मार्ग नहीं माना जा सकता ( वै० सा० पृ० १५१ )। ब्राह्मण ग्रन्थोंका सर्वोच्च लक्ष्य स्वर्ग था, और उसकी प्राप्तिका मार्ग था यज्ञ। किन्तु आरण्यकोंमें ब्रह्मको पहचाननेके लिये आत्मसंयम के आधार पर अनेक उपासनाएँ बतलाई हैं। (वै० ए०, पृ० ४४७)।
तैत्तिरीय आरण्यकमें काशी, पश्चाल, मत्स्य, कुरुक्षेत्र और खाण्डवका उल्लेख है। उसीमें ( २-७-१) 'श्रमण' शब्द, जो आगे वेदविरोधी सम्प्रदायोंके साधुओंके अर्थमें व्यवहृत हुआ और ब्राह्मणका प्रतिद्वन्द्वी कहलाया-तपस्वीके अर्थमें प्रथम बार आता है। तै० आ० ( २-१-५ ) में ही यज्ञोपवीतका भी उल्लेख मिलता है। लिखा है-'यज्ञोपवीत धारण करनेवाले का यज्ञ भलीभाँति स्वीकार किया जाता है। यज्ञोपवीत धारी ब्राह्मण जो कुछ अध्ययन करता है वह यज्ञ ही करता है।' __ आरण्यकोंमें वर्णाश्रम धर्मका पूर्ण विकास देखने में आता है। सम्भवतया यज्ञ और ब्राह्मणोंके विरुद्ध सिर उठानेवाले सिद्धान्तोंसे सुलह करनेके लिये ही ब्राह्मण धर्मने आश्रमोंके सिद्धान्तको अपनाया।
उपनिषद् उपनिषद्का अर्थ है-'निकट बैठना'। इस परसे यह व्याख्या की जाती है कि शिष्य लोग गुरुके निकट बैठकर इनका शिक्षण
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