Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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प्राचीन स्थितिका अन्वेषण किन्तु वैदिक साहित्यमें 'अरण्य' शब्दके जो अर्थ पाये जाते हैं उनसे पता चलता है कि अरण्योंके प्रति वैदिक ऋषियोंकी प्रारम्भमें कैसी मनोवृत्ति थी। ऋग्वेदमें गांवके बाहरकी बिना जुती हुई जमीनके अर्थमें अरण्य शब्दका प्रयोग हुआ है। किन्तु 'अरण्यानी' शब्दका प्रयोग जंगलके अर्थमें किया गया है। शतपथ ब्राह्मण (५-३-३५ ) में लिखा है कि अरण्यमें चोर बसते हैं। वृहदा० उप० (५-११ ) में लिखा है कि मुर्देको अरण्यमें ले जाते हैं। छा० उ० (८-५-३ ) में लिखा है कि अरण्यमें तपस्वीजन निवास करते हैं (वै०इ० में अरण्य शब्द )। . ___ यहाँ यह बतला देना आवश्यक है कि ब्राह्मण साहित्यमें तपका वर्णन है। इसमें विद्वानोंका ऐसा मत है कि जब वैदिक आर्य पूरबकी ओर बढ़े अर्थात् सिन्धु घाटीसे गंगा घाटीकी ओर गये तो यज्ञ पीछे रह गये और यज्ञका स्थान तप ने ले लिया (कै हि०)।
वैसे ऋग्वेद ( मं० १०, सूक्त १६० ) में तपसे विश्वकी उत्पत्ति बतलाई है। और यह सूक्त अघमर्षण ऋषिका बतलाया जाता है। समस्त ब्राह्मण स्मृतियोंमें इस सूक्तको शोधक सूक्तोंमें बतलाया है। अघमर्षणके उक्त सूक्तसे पहले दसवें मण्डलमें ही ५६ नम्बरका सूक्त है जिसे प्रजापति परमेष्ठीका सूक्त कहा जाता है, इस सूक्तमें भी सृष्टिकी उत्पत्तिकी ही चर्चा है। इन दोनों सूक्तोंका साधारणतया एक ही पक्ष है कि दोनोंके रायता ऋषि इस दृश्य संसारकी उत्पत्ति तपसे बतलाते हैं। (हि० प्री० ई० पि० पृ०८)
इस तरह यद्यपि ऋग्वेदमें तपका निर्देश आता है किन्तु तपका वर्णन ब्राह्मण साहित्यसे पहलेके वैदिक साहित्यमें नहीं
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