Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका है कि जैनधर्म मूलमें आर्योंका धर्म था या द्रविड़ों का, और ऋषभदेव केवल आर्योंके पूर्वज थे या द्रविड़ों के भी ? किन्तु इतना निश्चित है कि द्रविड़ संस्कृति या द्रविड़ धर्मके सिद्धान्तोंसे जैन धर्मके सिद्धान्त बहुत मिलते जुलते हुए हैं। (प्रीहि० ई०, पृ० १२०)।
सुप्रसिद्ध भाषाविद् डा० सुनीति कुमार चटर्जी ने लिखा है
'यह कहना सत्य नहीं है कि हिन्दू सभ्यताके सभी उदात्त एवं उच्च उपादान आर्योंकी देन थे। तथा जो निकृष्ट और हीन उपादान थे वे अनार्य मानसको उच्छृङ्खलताके द्योतक थे। आर्य चित्तके कुछ दृष्टिकोणोंके मूर्तरूप ब्राह्मण और क्षत्रियकी बिचार तथा संगठन करनेकी योग्यताको स्वीकार कर लेने पर भी, कितनी ही नई सामग्री तथा नूतन विचार धारा यह सूचित करती है कि भारतीय सभ्यताका निर्माण केवल आर्योंने ही नहीं किया, बल्कि अनार्योंका भी इसमें बड़ा भारी हिस्सा था। उन्होंने इसकी मूल प्रतिष्ठाभूमि तैयार की थी। देशके कई भागोंमें उनकी ऐहिक सभ्यता आर्यों की अपेक्षा कितनी ही आगे बढ़ी हुई थी। नगरवासी अनार्यकी तुलनामें आर्य तो अटनशील बर्बर मात्र प्रतीत होता था। धीरे-धीरे अब यह बात स्पष्टतर होती जा रही है कि भारतीय सभ्यताके निर्माणमें अनार्योंका भाग विशेष रूपसे गुरुतर रहा। भारतीय प्राचीन इतिहास एवं दन्तकथाओंमें निहित धार्मिक तथा सांस्कृतिक रीति-परिपाटी केवल अनार्योंसे आई हुई वस्तुका आर्य भाषामें रूपान्तर मात्र है; क्योंकि आर्योंकी ओरसे उनकी भाषा ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण देन बन गई थी, यद्यपि वह भी अनार्य उपादानोंसे बहुत कुछ मिश्रित होकर पूर्ण विशुद्ध न रह सकी। संक्षेपमें कर्म तथा
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