Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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श्रुतपरिचय प्रारम्भ के बीस शतकों को पौराणिक बाना पहनाया गया है। वे सब बिना किसी क्रम के Dथे गये हैं और उनमें कोई एक ऐसा तन्तु नहीं प्रतीत होता जो सब को जोड़ता हो । उनमें भगवान महावीर के कार्यों और उपदेशों के विविध उल्लख हैं । राजगृही के राजा श्रोणिक के समय में भगवान महावीर अपने प्रथम शिष्य गौतम इन्द्रभूति से वार्तालाप करते हैं । किन्तु शतक २१ से विषय बदल जाता है । २१-२३ श. पौदोंके विषयमें है । २४-३० श० में जोव की विभिन्न दशाएँ बतलाई हैं अर्थात् ४ में जीवका उद्गम, २५ में लेश्यादि भाव, २६ में कर्मबन्ध, २७ में कतो कम करण, २८ में पाप कमोदि दण्डक, २९ में कर्म प्रस्थापनादि और ३० में समवसरण का कथन है । ३१ से ४१ तक कृत, त्रेता, द्वापर और कलियुग का वर्णन है। अन्तिम शतकों के सम्बन्ध में वेबर का कथन था कि वे एक जन गणना की सूचियों के तल्य हैं। (इं. एं, जि० १६, पृ० ६३ ।।
अतः श्री वेबर का यह निश्चित मत था कि शुरु के बीस शतकों के साथ २१ आदि शतक बिना किसी परिवर्तन के साथ पीछे से जोड़ दिये गये हैं । फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि इस योग को करने में कोई मार्ग दर्शक अवश्य था; क्यों कि प्रत्येक शतक के प्रारम्भ में एक आर्या दी गई है जो प्रत्येक शतक के प्रत्येक उद्देश का विषय सूचन करती है। इससे पूर्व के किसी अङ्गमें यह बात नहीं पाई जाती । दूसरे अन्य आगमोंके उद्धरण बहुतायत से पाये जाते हैं। उनके कारण विषय प्रसंग प्रायः न केवल छिन्न हुआ है किन्तु नष्ट भ्रष्ट हो गया है। रायपसेणीय, पन्नवणा, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति नामक उपाङ्गों से भी उद्धरण लिये गये हैं। तथापि यह प्रश्न अवश्य रह जाता है कि यह कार्य संकलयिता का है या प्रतिलेखकों का । यह सन्देह तो करना ही
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