Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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० सा० इ० पू० पीठिका
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है । गौतम गणधर भगवानसे उसके विषय में पूछते हैं । भगवान उत्तर देते हैं कि सूर्याभ देव पूर्वं भवमें पऐसी नामक राजा था । एक बार उसने अपने एक दरबारीको भेंट लेकर श्रावस्ती भेजा । वहां पार्श्वनाथ की परम्पराके निन्थ श्रमण केसी कुमार थे उनकी ख्याति सुनकर वह बहुत प्रभावित हुआ और अपने राजा पऐसी को उनके पास ले आया । राजा और केसी कुमार के बीच में जो वार्तालाप हुआ वही इस उपांग में ग्रथित है । केसी कुमार ने यह प्रमाणित किया कि शरीरसे भिन्न आत्मा है। राजा पऐसी आत्माको नहीं मानता था । वह कहता है - मैंने एक चोरको मार डाला उसके टुकड़े २ कर दिये । किन्तु मुझे तो उसमें आत्माका कोई चिन्ह तक नहीं मिला । केशी उत्तर देते हैं कि तुम्हारा यह कर्म उस मनुष्यकी तरह ही है जो आगके लिये लकड़ियोंको तोड़ तोड़ कर देखता है । इत्यादि, इस पर मलयगिरि की टीका है।
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३ - जीवाभिगम नामक तीसरे उपांग में गौतम इन्द्रभूतिके प्रश्न और भगवान महावीर के उत्तरके रूपमें जीव, जीव और जम्बूद्वीप सम्बन्धी क्षेत्र पर्वतों श्रादिका विस्तार से वर्णन है । जिस भाग में द्वीप- सागर वगैरहका वर्णन है वह जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति से सम्बन्ध रखता है । उद्धरणोंकी भी बहुतायत है । इस पर मलयगिरिकी टीका है ।
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४ चौथा उपांग पन्नवणा अथवा प्रज्ञापना है । इसमें जीव की विभिन्न दशाओं का वर्णन है । यह छत्तीस पदोंमें विभाजित है, जिनमें से अनेक में दोसे लेकर छै तक उद्देसक हैं । ग्रन्थके अन्तकी चार गाथ में छत्तीस पदोंके नाम दिये हैं । उन ३६ पदोंमें से पहले, तीसरे, पांचवे, दसवें और तेरहवें पदोंमें जीव
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