Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
View full book text
________________
६६२
जै० सा० इ० पू०पीठिका ५ पांचवा उपांग सूर्यप्रज्ञप्ति है । इसमें बीस प्राभृत हैं जिनमें सूर्यके मण्डल, परिभ्रमण, गति, दिनमान, हानिवृद्धि, प्रकाश संख्या, वर्षका आरम्भ और अत, वर्षके भेद, चन्द्रमाकी हानि वृद्धि, चन्द्र सूर्य आदिकी ऊँचाई, विस्तार आदिका कथन है । इस ग्रन्थमें सूर्य और चन्द्र दोनोंका कथन है। अतः डा. विन्टरनीटसका कथन है कि चूकि इसका विभाग प्राभृतोंमें है और प्राभृत दृष्टिवादके अन्तर्गत थे, अतः दिगम्बर साहित्यमें जो सूर्य प्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्तिको दृष्टिवादका भेद माना है वह उचित है। स्थानांग४-१में इन्हें अगबाह्य कहा है। ___६ छठा उपांग जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति है-इसमें जम्बूद्वीपका वर्णन है इसका सम्बन्ध जैन भूगोलसे है। किन्तु भारतवर्ष का वर्णन करते हुए राजा भरतकी कथाने ग्रन्थका बहुत सा भाग ले लिया है। __७ सातवां उपांग चन्द्र प्रज्ञप्ति है। इसमें चन्द्र सम्बन्धी बातोंका वर्णन है यह सूर्यप्रज्ञप्तिसे मिलता जुलता हुआ है ।
८ आठवां अंग कल्पिका या निरयावलियाओं है। 'निरयावलियारो' का अर्थ है - 'नरकोंकी पंक्ति' । इसमें बतलाया है कि चम्पा नगरीके राजा कुणिकके अथवा अजात शत्रुके दस भाई युद्धमें वैशाली नरेश चेटकके द्वारा मारे गये और मरकर नरकोंमें गये।
हनौवां उपांग कल्पावतंसिका है। इसमें राजा श्रेणिकके दस पौत्रोंकी कथाएं हैं जो दीक्षा धारण करके मरकर विभिन्न स्वोंमें गये। प्रत्येकका कथन एक-एक अध्ययनमें होनेसे इसमें दस अध्ययन है।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org