Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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श्रुतपरिचय
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| पांचवे पिण्डैषणा नामक अध्ययन में भिक्षा शुद्धि का कथन है । छठे महाचारकथा नामक अध्ययनमें महाजनों के योग्य महान आचार का कथन है। सातवें वचनविशुद्धि नामक अध्ययनमें निर्दोषवचन का विधान है। आठवें आचार प्रणिधि नामक अध्ययन में आचार में प्रणिहित दत्तचित्त होने का विधान है । नौवें विनय समाधि नामक अध्ययनमें बिनय सम्पन्न होने का विधान है। दसवें सभिक्षु अध्ययन में कहा है कि जो भिक्षु नवों अध्ययनों में प्रतिपादित विधानों का प्रतिपालक है वही सच्चा भिक्षु है । इन दस अध्ययनोंके सिवाय दो अध्ययन और हैं जिन्हें चूलिका कहा जाता है । उनमेंसे प्रथम का नाम रतिवाक्य है । यह साधु को संयम में स्थिर करनेके लिये है । और दूसरे में अनियत चर्या का विधान है ।
विधिमार्गप्रपा' में दशवैकालिकके बारह अध्ययन बतलाये हैं। दोनों अन्तिम अध्ययनों को भी इसके साथ गिना है। किन्तु दशवैकालिक नियुक्तमें दस अध्ययनों का विधान करके अन्तिम दो अध्ययनों को चूलिका बतलाया है । इस ग्रन्थ पर भी एक नियुक्ति है जिसे भद्रबाहुरचित माना जाता है । उसमें लिखा है कि दश वैकालिक का चौथा अध्ययन आत्मप्रवाद पूर्वसे, पांचवा अध्ययन कर्मप्रवाद पूर्व से और सातवां अध्ययन सत्यप्रवादपूर्व से उद्धृत किया गया है तथा शेष अध्ययन नौवे प्रत्याख्यान पूर्वके तीसरे वस्तु अधिकारसे उद्धृत किये गये हैं । उसीमें दूसरा मत यह भी दिया है कि दशवैकालिक का उद्धार द्वादशांगरूप गणिपिटकसे किया गया है ।
१ पृ. ४६ । २ गा०, १६-२४ । ३ - गा० १६-१८ |
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