Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 737
________________ ७१२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका ६ चन्द्रवेध्यक-चन्द्रवेधके उदाहरणके द्वारा यह बतलाया है कि आत्माका ऐसा ही एकाग्र ध्यान करना चाहिये । उसीसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसमें १७४ गाथाएँ हैं। ७ देवेन्द्रस्तव-३०७ गाथाओंके' द्वारा देवेन्द्रोंका कथन है। ८ गणिविद्या-८२२ गाथाओंके द्वारा ज्योतिषका कथन है। ६ महा प्रत्याख्यान-१४२ गाथाओंके द्वारा महा प्रत्याख्यान का कथन है। १० वीरस्तव-४३ गाथाओं में महावीर भगवानके नामोंकी गणना-स्तुतिरूप है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि दस पइन्नाओंकी तालिका अनिश्चित है। कोई देवेन्द्रस्त और वीरस्तवको एक साथ लेते हैं तथा संस्तारकको नहीं लेते। उनके स्थान में वे गच्छाचार पइन्ना और मरण समाधिको गिनते हैं। गच्छाचार में साधु साधियोंके आचारका कथन है जो महानिशीथ और व्यवहार सूत्रसे लिया गया है। मरण समाधि में ६६३ गाथाओंके द्वारा समाधि मरणकी विधि आदि वर्णित है। इस मे लिखा है कि मरण विशुद्धि, मरण समाधि, भक्त परिज्ञा, आतुर प्रत्याख्यान आदि ग्रन्थोंसे मरण समाधि ग्रन्थकी रचना की गई है। संक्षेप मे यह श्वेताम्बरीय अंगबाह्य ग्रन्थोंका परिचय है। उक्त साहित्यके आधार पर जैनाचार्योंने जो साहित्य रचा उसका इतिहास आगे दिया जायगा। यह तो उसकी केवल पूर्व पीठिका है। २-डा० विन्टर ने ३०० गाथा संख्या लिखी है। ३- डा० विन्टर ने गाथा संख्या ८६ लिखी हैं-पृ० ४६१ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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