Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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श्रुतपरिचय
७०६ अध्ययनमें जयघोषकी कथा है । विजयघोष नामक ब्राह्मण यज्ञ करता था। जयघोष मुनि भिक्षाके लिए पहुंचे। उसने भिक्षा नहीं दी। दोनोंका संवाद हुआ। जयघोषने कहा कि यज्ञोपवीत धारण करनेसे ही कोई ब्राह्मण नहीं होजाता और न वल्कल पहिननेसे तपस्वी ही होजाता है। सामाचारी नामक छब्बीसों अध्ययनमें साधुओंकी सामाचारीका कथन है। खलुङ्कीय नामक सत्ताईसवें अध्ययनमें गर्ग नामक मुनिकी कथा है। उसमें खलुङ्क-गलिया बैलका दृष्टान्त दिया है। अट्ठाईसवें मोक्षमार्ग नामक अध्ययनमें मोक्षके मार्ग ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप का वर्णन है। उनतीसवें सम्यकत्व पराक्रम नामक अध्ययनमें संवेग, निर्वेद, धर्म श्रद्धा आदि तिहत्तर द्वारोंका कथन है। इसका आरंभ 'सुयं में आउसं' आदि वाक्यसे होता है। यह सूत्ररूप है। आदि और अंतमें लिखा है कि भगवान महावीरने इसका कथन किया है। तीसवें तपोमार्ग नामक अध्ययनमें तपका वर्णन है। चरण विधि नामक इकतीसों अध्ययनमें चारित्रकी विधिका कथन है । प्रमाद स्थान नामक बत्तीसों अध्ययन में प्रमादका कथन है तथा राग द्वेष
और मोह को दूर करनेके उपाय बतलाये हैं। कर्म प्रकृति नामक तेतीसवें अध्ययनमें कर्मों के भेद प्रभेद तथा उनकी स्थिति बतलाई है। चौतीसवें लेश्या नामक अध्ययनमें छै लेश्याओं का स्वरूप बतलाया है। पैंतीसवे अनगार मार्ग नामक अध्ययनमें संक्षेपमें मुनिका मार्ग बतलाया है। छत्तीसवें जीवाजीवविभक्ति नामक अध्ययनमें जीव और अजीव द्रव्यों का कथन है।
इस तरहसे वर्तमान उत्तराध्ययन सूत्र विविध प्रकरणों का एक संग्रह जैसा है। न तो यह प्रश्नोत्तररूप ही है और न
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