Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ० पू०-पीठिका पाँचवा छेदसूत्र वृहत्कल्पसूत्र है। कोई इसे दूसरा छेद सूत्र मानते हैं। साधु और साध्वियों के प्राचार का यह एक प्रमुख और प्राचीन ग्रन्थ है । इसमें छै उद्देशक है, जिनमें निषेध परक नियमों का 'न कप्पई' करके और विधिपरक नियमों का कप्पई, करके निर्देश है । प्राकृत गाथाओंमें सूत्रों पर विस्तृत भाष्य होनेसे इसे कल्पभाष्य भी कहते हैं। भाष्यमें विविध विषयों का अच्छा संग्रह है। ____एक सूत्र में कहा है कि निर्ग्रन्थ और निम्रन्थियों को पूरब में अंग-मगध तक, दक्षिणमें कौशाम्बी तक, पश्चिममें स्थूणा नगरी तक और उत्तरमें कुणाला नगरी तक ही जाना चाहिये । इतना ही आर्य क्षेत्र है उससे बाहर नहीं आना चाहिये, उसके बाहर ज्ञान, दर्शन और चारित्र उत्पन्न नहीं होते।
आर्य देश की यह मर्यादा और निर्ग्रन्थ-निम्रन्थियों को उसी में विहार करनेका आदेश अन्वेषण की दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण है।
डा० विन्टर नीट्स३ व्यवहार सूत्र नामक छेद सूत्र को वृहत्कल्प सूत्र का पूरक मानते हैं। उनका कहना है कि कल्पसूत्र दण्डके उत्तर दायित्व का शिक्षण देता है और व्यवहार सूत्र अमुक दोषके लिये अमुक दण्ड का विधान करता है।
१-जै० सा० इ० (गु०), पृ. ७७ ।
२-'कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पुरथिमेणं जाव अंग मगहायो एत्तए, दक्खिणेणं जाव कोसंबीअो, पचत्थिमेणं जाव थूणाविसयात्रो, उत्तरेण जाव कुणाला विसयात्रो एत्तए । एत्ताव ताव कप्पड़ एत्ताव ताव पारिए खेते । णोसे कप्पइ एत्तो वाहिं । तेण परं नत्थ नाण दंसण चरित्ता उस्पप्पति त्ति बेमि ॥ ५० ॥
३-हि० इं० लि०, जि० २, पृ० ४६४ ।
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