Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ० पू०-पीठिका गये उनके विस्तृत उत्तरोंका, जिनका प्रमाण ३६००० है, कथन करता है। ( सम०, सू० १४०)
उपलब्ध पाँचवें अंग को भगवती भी कहते हैं। इसमें ४१ शतक हैं। इनमें से कुछ शतकों में अवान्तर शतक और उद्दे सक भी हैं। ग्रन्थ के अन्तः अवलोकन से प्रकट होता है कि इसमें १३८ शतक हैं, जिनमें अन्तःशतक भी सम्मिलित हैं। तथा १९५२ उहेशक हैं। तथा एक लाख चौरासी हजार पद हैं। यह बात सम्भवतः उस समय लिखी गई होगी जब पाँचवें अंग ने वर्तमान परिमाण का आधा रूप भी प्राप्त नहीं किया था। वर्तमान भगवती का परिमाण १५७५० श्लोक प्रमाण है । उसके प्रत्येक शतक में उद्देशकों की संख्या को देखने से प्रमाणित होता है कि उसने इतना परिमाण क्रमशः लिया है। प्रत्येक के उद्देसगों का परिमाण इस प्रकार है-शतक एक से आठ तक में, बारह से चौदह तक में और १८ से २० तक में प्रत्येक में दस-दस उद्देश हैं। नौवें और दसवें शतक में चौतीस चौतीस उद्देश हैं । ग्यारहमें बारह हैं, पन्द्रहवेंमें उद्देश ही नहीं हैं, सोलहवेंमें चौदह, सतरहवेमें सतरह उद्देश है। किन्तु इक्कीसवें शतकमें अस्सी, बाइसवें में साठ, तेईसवें में पचास, चौबीसवें में चौबीस छब्बीस से तीस तक प्रत्येक में केवल ग्यारह-ग्यारह उद्देश हैं। पच्चीसवें में बारह, किन्तु इकतीसवें और बत्तीसवेंमें अट्ठाईस अट्ठाईस उद्देस हैं । तेतीसवें और चौतीसवें में एक सौ चौबीस, पैतीत और छत्तीसमें एक सौ बत्तीस, चालीसमें दो सौ इकतीस और इकतालीसवें शतकमें एक सौ छियानों उद्देश हैं । उनकी विषय सूचीसे भी यही प्रमाणित होता है कि पाँचवें अङ्ग का विस्तार क्रमशः हुआ है।
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