Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका उल्लेख कल्पसूत्र में कर दिया है, उसका यहाँ अधिकार नहीं है क्योंकि उसमें नन्दिसूत्रके कर्ता देववाचक गुरु नहीं आते।' ___ इस सम्बन्धमें डा० वेबरका कहना था कि साक्षियोंसे प्रमाणित होता है कि नन्दिसूत्रको स्थविरावलीमें सुहस्तीके अनन्तर पूर्ववर्ती अथवा भाई महागिरिकी शिष्य परम्परा दी गई है ( इं० ए०, जि० २१, पृ० २६४)। हमारे सम्मुख आग. मोदय समितिसे मलयगिरिको टीकाके साथ प्रकाशित नन्दीसूत्रकी प्रति है। उसके मुख पृष्ठ पर मुद्रित है 'आर्य महागिरिकी आवलीमें हुए दृष्यगणिके शिष्य देववाचक रचित नन्दिसूत्र ।' अतः नन्दिसूत्रकार महागिरिकी परम्परामें थे। हमने ऊपर जो स्थविरोंकी नामावली दी है, वह भी उसीके अनुसार दी है। किन्तु डा० वेबरने अपने नन्दिसूत्र विषयक लेखमें जो स्थविरोंकी नामावली दी है उसमें इससे अन्तर है । डा० वेबरने सुहस्तिका नाम ब्रैकेट में देकर भी उसकी गणना नहीं की है। तथा मंगु और नन्दिलके बीचमें १७ धम्म, १८ भद्दगुत्त, १६ वइर और २० आर्य रक्षित के नाम दिये हैं। रेवती नक्षत्र और स्कन्दिलाचार्यके मध्यका 'सिंह' नाम उसमें नहीं है। तथा नागार्जुनके पश्चात् और भूतदिन्नसे पहले गोविन्द नाम और है।
अवचूरिके कथनानुसार स्थविरावलीके कतिपय नामों में बड़ी अनिश्चितता है । कुछ गाथाओंको जिनमें धम्म आदि नाम हैं प्रक्षिप्त माना जाता है। इसीसे गाथा संख्यामें भी अन्तर है ।
१-'सुहस्तिनः शिष्यावलिकायाः श्रीकल्पे उक्तत्वात् न तस्य इहाधिकारः तस्यां नन्दिकृद् देववाचक गुर्वनुत्पत्तेः ।'-गा. २७ की अवचूरी।
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