Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै०
० सा० इ० पूर्व पीठिका
किन्तु नन्दि में अङ्गबाह्य के आवश्यक और आवश्यकव्यतिरिक्त भेद करके आवश्यक व्यतिरिक्तके कालिक और उत्कालिक भेद किये हैं। इसकी विस्तार से चर्चा पहले आ चुकी है । अनुयोग द्वार में केवल आवश्यक की चर्चा है किन्तु नन्दी में अग पविट्ठ या अङ्ग बाह्य में उन सब ग्रन्थों के नाम दिये हैं। जो आगमकी श्रेणी में आते हैं किन्तु जिन्हें अङ्गों में सम्मिलित नहीं किया गया है ।
इस ग्रन्थसूची में बहुतसे नाम ऐसे हैं जो वर्तमान में आगम के अभूत रूपसे माने जाते हैं । किन्तु उल्लेखनीय बात यह है कि वर्तमान में श्व ेताम्बर सम्प्रदाय में उन ग्रन्थोंको जिन विशेष विभागों में विभाजित माना जाता है, नन्दी में उन विभागों का कोई संकेत तक नहीं है । वे विभाग हैं उपांग, पइन्ना, छेदसूत्र और मूलसूत्र । नन्दिमें इनका निर्देश नहीं है । पइन्नाका निर्देश है किन्तु भिन्न अर्थ में । तथा नन्दी में अनंग प्रविष्ट के अन्तर्गत ऐसे भी बहुतसे ग्रन्थ निर्दिष्ट हैं, जो या तो प्राप्त ही नहीं हैं या ग्रन्थोंके अन्तर्गत अध्ययनोंके नाम रूपमें पाये जाते हैं, किन्तु पृथक ग्रन्थ के रूप में नहीं पाये जाते ।
नन्दी में प्रदत्त प्रन्थसूचीकी एक और भी विशेषता है । उसमें नन्दीका भी नाम है। अब यदि आगमोंको पुस्तकारूढ़ - करने वाले देवर्द्धि गणि नन्दि' के रचयिता हैं तो नन्दिकी ग्रन्थसूची से वर्तमान आगम ग्रन्थों में पाया जाने वाला अन्तर खास
१ - नन्दि सूत्र के रचयिता देववाचक देवर्द्धिसे भिन्न थे । ऐसा जै० सा० इ० गुजराती में लिखा है । किन्तु वे दोनों समकालीन ये ।
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