Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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श्रुतपरिचय
६७९ कृतिकर्मका विधान श्वेताम्बर परम्परामें भी है। किन्तु संभवतया वीरसेन स्वामीने ग्रन्थ रूपका निर्देश करनेके कारण प्रतिक्रमण
और कायोत्सर्गके स्थानमें वैनयिक और कृतिकर्मका निर्देश किया है । ये दोनों भी आवश्यकोंके अंगभूत ही हैं। ___नन्दीमें कालिक श्रुत तथा उत्कालिकके बहुतसे भेद गिनाये हैं। उनमेंसे जो भेद वीरसेनोक्त अंगबाह्यके भेदोंसे मिलते हैं वे इस प्रकार हैं-दश वैकालिक, कल्प्याकल्प्य, महाकल्प्य, तथा उत्तराध्ययन, कल्प्य, व्यवहार । दिगम्बर साहित्यमें कल्प्य व्यवहारको एक गिनाया है। इस तरह चौदह भेदोंमें से नौ भेदोंके नाम श्वेताम्बर सम्मत अंगबाह्यके भेदोंके नामोंसे मेल खाते हैं। शेषमें से एक भेद पुण्डरीक है। सूत्रकृतांग के दूसरे श्रुतस्कन्धके प्रथम अध्ययनका नाम भी पुण्डरीक है। इसी तरह एक भेदका नाम ‘णिसिहिय है, इसका संस्कृत रूपान्तर निषिद्धिका किया जाता है। उधर नन्दीमें कालिकके भेदोंमें एक भेदका नाम निसिह' है जिसका संस्कृतरूप निशोथ है । श्वेताम्बरोंमें निशीथ नामक सूत्र प्रसिद्ध है। हम नहीं कह सकते कि इन भेदोंका परस्परमें कोई सम्बन्ध है या नहीं।
प्रो० विंटरनीटसका कहना है कि यह अनुमान करना सम्भव है कि जो मूल ग्रन्थ दोनों सम्प्रदायोंमें समान रूपसे मान्य है, वे जैनोंके पवित्र साहित्य के प्राचीनतम अंश हैं । तथापि जिन ग्रन्थोंके नाममें साम्य है उनमें प्रतिपादित विषयकी दृष्टिसे कहाँ तक एकरूपता है यह प्रश्न अनुसन्धान करने के लिये रह जाता है (हि. इं. लि., जि. २ पृ. ४७४) । इसके सम्बन्धमें पूर्वमें प्रकाश डाला जा - चुका है।
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