Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका स्थानांगकारके सामने प्रस्तुत अंगकी वर्तमान प्रति तो नहीं ही थी।
प्रश्न व्याकरणकी टीकामें टीकाकार अभयदेवने लिखा हैप्रश्न व्याकरण शब्दका प्रश्नोंका व्याकरण रूप व्युत्पत्यर्थ पूर्वकालमें था। इस समय तो इस ग्रन्थमें आसवपंचक और संवर पंचकका ही व्याख्यान पाया जाता है। ये सब बातें इस बातको प्रमाणित करती हैं कि दसवाँ अंग अपने मूल रूपमें अथवा प्राचीन रूपमें वर्तमान नहीं रहा। अतः उसका स्थान इस नये अंगने ले लिया ( इं० ए०, जि० २०, प० २३ । हि० ई० जि०२, १०४५२ )।
११ विपाक सूत्र-सुकृत अर्थात् पुण्य और दुष्कृत अर्थात् पापके विपाकका विचार करता है (त० वा० पृ०७४ । षटखं०,पु. १, पृ० १०७) । द्रव्य क्षेत्र काल और भावकी अपेक्षा शुभ अशुभ कमौके विपाकका वर्णन करता है (क०, पा० भा० १, पृ० १ २) ( नन्दी० सू० ५६ । समवा० सू० १४६ ।। ___ वर्तमान ग्यारहवें अंगमें दो श्रुत स्कन्ध हैं। प्रत्येकमें दसदस अध्ययन हैं, जिनमें दस-दस कथाओंके द्वारा पुण्य और पापका फल बतलाया गया है। गौतम इन्द्र भूति अनेक दुखी प्राणियोंको देखते हैं। उनकी प्रार्थना पर महावीर बतलाते हैं कि पूर्वजन्ममें कौन कर्म करनेसे आदमी इस प्रकारका कष्ट भोगता है, किन-किन पर्यायोंमें उसे जन्म लेना पड़ता है और किन उपायोंसे वह पुनः शुभ गतिमें जन्म ले सकता है। उदा. हरणके लिए एक अम्बरदत्त नामक व्यक्ति भयानक रोगोंसे पीड़ित है क्योंकि पूर्वजन्ममें वह एक वैद्य था और उसने एक
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