Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
View full book text
________________
श्रुतपरिचय
६७३ उपलब्ध आधार से दिया है और वह आधार नन्दी, समवायांग वगैरह से भिन्न ज्ञात होता है, क्योंकि उससे उनका मेल नहीं खाता। ___हाँ, स्थानांग में नौवे और दसमें अङ्ग के दस अध्ययनों के जो नाम दिये हैं वे नाम अकलंक देव के द्वारा दिये गये उक्त दोनों अंगों के परिचयमें पाये जाते हैं। वे नाम न समवायांग में हैं और न नन्दी में हैं। किन्तु हम यह कह सकने में असमर्थ हैं कि अकलंक देव ने उन्हें स्थानांग से ही लिया है या अन्यत्र से; क्योंकि कुछ नामों में अन्तर भी है ।
अंग बाह्य श्रुत श्रुतके दूसरे मुख्य भेदका नाम अगबाह्य अथवा अनंग प्रविष्ट है । अग प्रविष्टके रचयिता गणधर थे इस बातमें दिगम्बर
और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंमें कोई मतभेद नहीं पाया जाता। किन्तु अंगबाह्यके रचयिताके विषयमें दोनों ही सम्प्रदायोंमें दो मत पाये जाते हैं।
दिगम्बर परम्परामें आचार्य पूज्यपाद तथा तदनुयायी अकलङ्क देव अंगबाह्यको आरातीय आचार्योंके द्वारा रचित बतलाते हैं। पूज्यपादने लिखा है कि 'वक्ता तीन होते हैं-सर्वज्ञ तीर्थङ्कर, श्रुतकेवली और पारातीय । सर्वज्ञने अर्थरूपसे आगमका उपदेश दिया। उनके साक्षात् शिष्य गणधरोंने उसे स्मरण रख कर अंग और पूर्वरूप ग्रन्थोंकी रचना की। और आरातीय • १–'पारातीयैः पुनराचार्यैः कालदोषसंक्षिप्तायुर्मतिबलशिष्यानुग्रहार्थं दसवैकालिकाद्युपनिबद्धम् । –सर्वार्थ०, १-२० ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org