Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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आचार्योंने काल दोषसे अल्पायु और अल्प बुद्धिवाले शिष्योंके के लिए दसवैकालिक आदि रचे । अकलङ्क' देवने भी इस कथनका अनुसरण किया है । किन्तु श्री वीरसेन स्वामीने कृति अनुयोग' द्वारकी धवला टीकामें स्पष्ट रूपसे इन्द्रभूति गौतम को अग प्रविष्ट और अंग बाह्यका कर्ता बतलाया है । एक बात और भी उल्लेखनीय है कि धवला और जयधवला' टीकाके आरम्भ में उन्होंने इन्द्रभूति गौतमको केवल रंगों और पूर्वोका कर्ता बतलाया है, जैसाकि तिलोय परगति ( अ. १, गा. ७६ ) में बतलाया है । वहाँ अग बाह्यके कर्तृत्वका निर्देश नहीं किया है।
जै०
० सा० इ० पूर्व पीठिका
वीरसेन स्वामीके लघु समकालीन श्री जिनसेन ने तो अपने हरिवंश पुराण में स्पष्ट रूपसे यह लिखा है कि भगवान महावीरने पहले रंग प्रविष्टका व्याख्यान किया और फिर अग बाह्यका व्याख्यान किया । और गौतम गणधर ने उसे सुनकर उपांग सहित द्वादशांग श्रुत स्कन्धकी रचना की । इस तरह जो अग बाह्य पहले गणधरोंके शिष्य प्रशिष्य रचित माने जाते थे -१' श्रारातीयाचार्यकृताङ्गार्थप्रत्यासन्नरूपमङ्गबाह्यम् ।
- त० वा०, १ - २०-१३ । २ - ' गोदमगोत्तेण ब्रह्मणेण इंदभूदिणा श्रायार .... दिट्टिवादाणां.... मंगबज्भाणं च.... रयणा कदा' । - षट् खं०, पु० ६, पृ. १२६ । ३ - षट् खं०, पु० १, पृ० ६५ । ४ क० पा० भा० १, पृ० ८३ । ५- 'अंगप्रविष्टतत्त्वार्थ प्रतिपाद्य जिनेश्वरः । श्रंगबाह्यमवोचत्तत्प्रतिपाद्यार्थरूपतः ॥ १०१ ॥ श्रथ सप्तर्द्धिसम्पन्नः श्रुत्वार्थं जिन भाषितम् । द्वादशाङ्गश्रुतस्कन्धं सोपा गौतमो व्यधात् ॥
१११ ॥
- हरि० पु०, स० ।
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