Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ० पूर्ण पीठिका
नन्दिचूर्णि ' में तथा नन्दिकी हरिभद्रीय' वृत्ति में भी दोनोंमें दो भेद बतलाये हैं - एक कर्तृनिमित्तक और एक नियत अनियत । इन दोनोंके सिवाय जो तीसरा अन्तर विशे० भा० में बतलाया हैं उस परसे अंगबाह्य के भी गणधर रचित होनेकी बात प्रस्फुटित होती है; क्योंकि प्रश्नपूर्वक जो अर्थ प्रतिपादन तीर्थङ्कर ने किया उसको भी गणधरोंने ही ग्रन्थरूप में निबद्ध किया होगा। वि० भा० के टीकाकार हेमचन्द्रने तीनों अन्तरोंके तीन उदाहरण दिये हैं । स्थविरकृत अंगबाह्य जैसे भद्रबाहुकृत आवश्यक नियुक्ति श्रदि । प्रश्न पूर्वक अर्थ प्रतिपादनके आधार पर रचित बाह्य जैसे आवश्यक आदि । अनियत गबाह्य जैसे तन्दुल वैकालिक आदि । तीनों अन्तर एक ही गबाह्यमें नहीं घटाये हैं ।
अब आवश्यक अ ंगबाह्यको लीजिये । आवश्यक नियुक्ति, विशे० ० भा० और उनकी टीकाओंसे बराबर यह परिलक्षित होता है कि आवश्यकके अन्तर्गत सामायिक आदि अध्ययनोंकी रचना तीर्थङ्कर के उपदेशके अनुसार गणधरोंने की थी । आवयश्क र नि०में कहा गया है कि मैं गुरुजनके द्वारा उपदिष्ट और आचार्य परम्परासे आगत सामायिक नियुक्तिको कहता हूं । टीकाकार मलयगिरिने गुरुजनका अर्थ तीर्थङ्कर और गणधर किया है । इसी तरह विशेषावश्यक भाष्य में सामायिकका निरूपण करते हुए कहा है कि सामायिकका कथन तीर्थङ्कर करते हैं
१ – पृ० ४७ । २ – पृ० ६० ।
३ - ' सामाइनिजुतिं वोच्छं उवएसियं गुरुजणे ं । प्रायरियपरं परएण श्रागयं श्रणुपुवीए ॥ ८७ ॥ *
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