Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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ज० सा० इ०-पूर्व पीठिका साहित्यिक दृष्टिसे इनका मूल्य स्वल्प ही है। आठवें अङ्ग अन्त. गडदसाओंमें मूलतः दस अध्ययन थे किन्तु अब वह आठ वर्गोमें विभाजित है। नौवें अङ्ग अगुत्तरोववाइयदसाओमें भी मूलमें दस अध्ययन थे। अब उनके स्थानमें तीन वर्ग और तेतीस अध्ययन हैं। जैसा कि स्थानांगसे ज्ञात होता है, दोनों अङ्गोंकी मूल विषय सूचीसे वर्तमान दोनों अंगोंकी विषय सूची 'एकदम भिन्न है। यदि अन्य कारणों पर दृष्टि न दी जाये तो भी अपनी स्थितिके आधार पर दोनों अंग साहित्यिक श्रेष्ठताका दावा नहीं कर सकते। इनमें वर्णित कथाएँ न केवल एक ठप्पेके रूपमें चित्रित की गई हैं किन्तु बहुधा उनका केवल ढाँचा ही उपस्थित किया गया है और उनमें बँधे बधाँये शब्दों और वाक्यों को भरनेका काम पाठकके लिए छोड़ दिया गया है। उदाहरणके लिए-उस समय एक चम्पा नाम नगरी थी, उसमें एक पुरण भद्द नामक चैत्य था, एक वन था ( वरणश्रो)। 'वएणो 'का यह अभिप्राय है कि नगरी और वनका पूरा वर्णन यहाँ उपांग प्रथमकी तरह भर लेना चाहिए। दूसरा उदाहरण भगवान महावीरके शिष्य स्थविर सुधर्माका है । कथामें यहाँ केवल उनका नाम मात्र दिया है और उनका पूरा वर्णन छठे अंगमें है सो यहाँ जानना, ऐसा लिख दिया है (हि० इं० लि., जि० २, पृ० ४५० )।
१० प्रश्न व्याकरण-आक्षेप और विक्षेपके द्वारा हेतु और नयके श्राश्रित प्रश्नोंके व्याकरणको प्रश्न व्याकरण कहते हैं। उनमें लौकिक और चैदिक अर्थोंका निर्णय किया जाता है (त० वा. पृ०७२ ) आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी, निर्जेदनी, इन चार कथाओंका निरूपण करता है "यह अंग प्रश्नके अनुसार नष्ट, मुष्टि, चिन्ता, लाभ, अलाभ, सुख दुःख, जीवित, मरण, जय,
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